________________
किरण १]
श्रीचंद्र और प्रभाचंद्र
३
श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे यसपूत्य (अशीत्य ?) जांगलदेशे सुलतानसिकंदरपुत्र सुलतान इब्राहिमधिकवर्षसहस्र पुगणसाराभिधानं समाप्तं । शुभं भवतु। राज्यप्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे लेखकपाठकयोः कल्याणम् ।
भट्टारक श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः तदाम्नाये जैसवाल चौ० __ पप्रचरितके टिप्पणकार और पुराणसारके टोडरमल्लु । चौ० जगसीपुत्र इदं उत्तरपुराण टीका कर्ता इन्हीं श्रीचन्द्रमुनिका बनाया हुआ महापुराण
लिग्यापितं । शुभं भवतु । मांगल्यं दधति लेखक
पाठकयोः। (पुष्पदन्तकृत) का एक टिप्पण है, जिसका दूसरा
उक्त तीनों ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे यह बात :
त स्पष्ट भाग अर्थात उत्तरपुराण-टिप्पण उपलब्ध है । उसके होती है कि इन तीनों को श्रीचन्दमनि हैं. जो अन्तमें लिखा है
बलात्कारगणक श्रीनन्दि सत्कविके शिष्य थे और श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्र उन्होंने धारा नगरीमें परमारवंशीय सुप्रसिद्ध गजा महापुगण-विषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तात् भोजदेवके समयमें वि० सं० १०८७ और १०८० में परिज्ञाय मूलटिप्पणिकां चालोक्य कृतमिदं ममुच्चय- उक्त ग्रंथोंकी रचना की है। टिप्पणं अक्षपातभीतेन श्रीमदला (त्का) रगणश्री-मंघा अब श्रीप्रभाचंद्राचार्यके ग्रंथोंको देखिए और (नंद्या)चार्यसत्कविशिष्यण श्रीचंद्रमुनिना निज- पहले आदिपुराण टिप्पणको लीजियदौर्दडाभिभूतग्पुिराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवम्य । १०२। प्रारंभइति उत्तरपुगणटिप्पणकं प्रभाचंद्राचार्य +
प्रणम्य वीरं विबुधेन्द्रसंस्तुत विरचितं समाप्तम।
निरस्तदोषं वृषभं महोदयम् । अथ संवत्सरेऽस्मिन श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्दः
पदार्थसंदिग्धजनप्रबांधक संवत १५७५ वर्ष भादवा सुदी ५ बुद्धदिने कुरु
महापुगणम्य करोमि टिप्पणम् ।। * यह ग्रन्थ जयपुरके पाटोदीके मन्दिरकं भंडाग्में समम्तसन्देहहरं मनोहर (गठरी नं० १३ ग्रन्थ तीसरा पत्र ५७ श्लो० १७००)
प्रकृष्टपुण्यप्रभवं जिनेश्वरम् । है। इसकी प्रशस्ति स्व०५०पन्नालालजी बाकलीवालने
कृतं पुराणे प्रथमे सुटिप्पणं आश्विन-सुदी ५ वीर सं० २४४७ के जैनमित्रमें सुखावबोधं निखिलार्थदपेणम् ।। प्रकाशित कराई थी और मेरे पाम भी उन्होंने इसकी इति श्रीप्रभाचंद्रविरचितमादिपुराणटिप्पणक नकल भेजी थी । इसी सम्बन्धमे उन्होंने अपने पंचासश्लोकहीनं सहस्रद्वयपरिमाणं परिसमाप्ता (सं)। ता०१६-६-२३ के पत्रमें लिखा था कि "उत्तर शुभं भवतु Ix पुगणकी टिप्पणी मँगाई सो वह गठरी नहीं मिली पुष्पदन्तके महापुराणके दो भाग हैं एक आदिथी-आज ढूँढकर निकाली है। उसके आदि अंतके पुराण और दूसरा उत्तरपुराण । इन भागों की प्रतियाँ पाठकी भी नकल है। 'श्रीचंद्रमुनिना' में 'प्रभा' शब्द अलग अलग भी मिलती है और समग्र ग्रंथकी छट गया मालम होता है। परंत श्लोक संख्यामें फर्क एक प्रति भी मिलती है। श्रीचन्द्रने और प्रभाचन्द्र होनेसे शायद श्रीचंद्रमुनि दूसग भी हो सकता ने दोनों भागों पर टिप्पण लिखे हैं। श्रीचन्द्रका
आदिपुराण का टिप्पण तो अभी तक हमें नहीं मिला + यहाँ निश्चयसे श्रीचन्द्राचार्यकी जगह प्रभा- परंतु प्रभाचन्द्र के दोनों भागों के टिप्पण उपलब्ध चन्द्राचार्य लिखा गया है। यह लिपिकर्ताकी भूल xभाण्डारकर रिमर्च इन्स्टिट्यूट की प्रति न० मालूम होनी है।
५६३ (श्राफ १८७६-७७)
अन्त