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महात्मा गाँधीके धर्मसम्बन्धी विचार
(सं० ०-डा० भैयालाल जैन )
मेरा विश्वास है कि बिना धर्मका जीवन, बिना सिद्धान्त करनेकी आवश्यकता है। का जीवन है; और बिना सिद्धान्तका जीवन वैसा ही है जैसा यदि देश-हितका भाव दृढ धार्मिकतासे जागृत हो तो कि बिना पतवारका जहान । जिस तरह बिना पतवारका वह देश-हितका भाव भली भाँति चमक उठेगा। जहाज़ इधरसे उधर मारा-मारा फिरेगा और कभी उद्दिष्ट हमने धर्मकी पकड छोड़ दी । वर्तमान युगके ववण्डरमें स्थान तक नहीं पहुँचेगा, उमी प्रकार धर्महीन मनुष्य भी हमारी समाज-नाव पड़ी हुई है। कोई लंगर नहीं रहा, इसी संसार-सागरमें इधरसे उधर मारा-मारा फिरेगा और कभी
लिए इस समय इधर-उधरके प्रवाहमें बह रही है। अपने उद्दिष्ट स्थान तक नहीं पहुँचेगा।
सत्यसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है और 'अहिंसा परमो मैंने जीवनका एक सिद्धान्त निश्चित किया है। वह धर्म:' से बढ़कर कोई श्राचार नहीं है। सिद्धान्त यह है कि किसी मनुष्यका, चाहे वह कितना ही
जो अहिंसाधर्मका पूरा पूरा पालन करता है उसके महान् क्यों न हो, कोई काम तब तक कभी सफल और
चरणोपर सारा संसार श्रा गिरता है । आस-पासके जीवोंपर लाफदायक नहीं होगा जब तक उस कामको किसी प्रकारका
भी उसका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि साँप और दूसरे जहरीले धार्मिक श्राश्रय न होगा।
जानवर भी उसे कोई हानि नहीं पहुंचाते । जहाँ धर्म नहीं वहाँ विद्या नहीं, लक्ष्मी नहीं और श्रारोग्य भी नहीं । धर्मरहित स्थितिमें पूरी शुष्कता है,
___जहाँ सत्य है और जहाँ धर्म है, केवल वहीं विजय भी
है । सत्यकी कभी हत्या नही हो सकती। सर्वथैव शून्यता है । इस धर्म-शिक्षाको हम खो बैठे हैं। हमारी शिक्षा-पद्धतिमें उसका स्थान ही नहीं है । यह बात सत्य और अहिंसा ही हमारे ध्येय हैं । 'अहिंसा परमोवैसी ही है जैसी बिना वरकी बरात । धर्मको जाने बिना धर्म:' से भारी शोध दुनिया में दूसरी नहीं है । जिस धर्ममें विद्यार्थी किस प्रकार निर्दोष आनन्द प्राप्त कर सकते हैं ? जितनी ही कम हिंसा है, समझना चाहिए कि उस धर्ममें यह अानन्द पानेके लिए, शास्त्रका अध्ययन उसका मनन उतना ही अधिक सत्य है। हम यदि भारतका उद्धार कर अथवा विचार और अनन्तर उस विचारके अनुसार श्राचरण सकते हैं तो सत्य और अहिंसा ही से कर सकते हैं।
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