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एकान्त और अनेकान्त
ले० पं० पन्नालाल जैन 'वसन्त' साहित्याचार्य बड़वानलसे मैं हूं अदाह्य
कर, नर रहनेको है आता ? मैं अख-शबस हूं अभेद्य,
जो जीव जन्म लेता जगमें मैं प्रबल पवनसे हूँ अशोष्य
वह मृत्यु अवश.ही पाता है, मैं जलप्रवाहसं हूं अक्लेद्य ।
यह सकल विश्व हे क्षणभकर ज्यों जीर्ण वस्त्रको छोड़ मनुज
थिर कोइ न रहने पाता है। नूतन अम्बर गह लेता है,
इस भाँति आपको अथिर मान त्यों जीर्ण देहको छोड़ जीव
बेचैन हुए कितने फिरते !
कितने सुख समता पानेको नूतन शरीर पा लेता है।
दिन रात तड़पते हैं फिरते । यह जीव न मरता है कदापि
एकान्तवादका कुटिल चक्र पैदा भी होता है न कभी,
वस्तु-स्वरूपको चूरचूर, यह है शाश्वत,-तन नशने पर
कर मार्गभ्रष्ट मानव समाजइसका विनाश होता न कभी।
का, करता निज सुखसे विदूर।। इस भाँति आपको नित्य मान
xxx कितने ही जगके जीव आज,
सज्ज्ञान-प्रभाकर ही मैं हूँ करते घातक पातक महान्
सच्चिदानन्द, सुखसागर हूँ, मनमें किंचित् लाते न लाज ।
मैं हूँ विशुद्ध, बल-वीर्य-विपुल, जब जीव न मरते मारेसे
बहु दिव्य गुणोंका भागर हूँ। तब हिंसामें भी पाप कहाँ ?
कितने ही ऐसा सोच साच, एकान्त-गसमें पड़कर यों
कर्तव्य-विमुख होजाते हैं, दुख पाते हैं बहु जीव यहाँ।
एकान्तवादकी मदिरासे xxx
उन्मत्त चित्त बन जाते हैं। जो उषा-कालमें प्राचीसे लेकर वैभव था उदित हुमा,
मैं अज्ञ, दुःखका पाकर हूँ 'वह दिव्य दिवाकर भी आखिर
बलहीन, अशुचिताका घर हूँ, दिखता है सब को अस्त हुआ।
मैं हूँ दोषोंका वर निकेत हरि-हर - ब्रह्मादिक देवोंपर
मैं एक तुच्छ पापी नर हूँ। जब चक्र कालका चल जाता,
यह सोच मनुज कितने जगमें तब कौन विश्वमें शाश्वत हो
कायर हो दुःख उठाते हैं,