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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - १/११
भरतक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करता है । वे दो भाग दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत हैं ।
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[१२] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र कहाँ है ? गौतम ! वैताढ्यपर्वत के दक्षिण में, दक्षिण- लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्व- लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिम- लवणसमुद्र पूर्व में जम्बू नामक द्वीप के अन्तर्गत है । वह पूर्व - पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है । यह अर्द्ध-चन्द्र- संस्थान - संस्थित है-तीन ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है। गंगा और सिन्धु महानदी से वह तीन भागों में विभक्त हो गया है । वह २३८-३/१९ योजन चौड़ा है । उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है । वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किए हुए है । अपनी पश्चिमी कोटि से वह पश्चिम - लवण समुद्र का तथा पूर्वी कोटि से पूर्वलवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है । दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र की जीवा ९७४८ - १२ / १९ योजन
है । उसका धनुष्य - पृष्ठ - दक्षिणार्ध भरत के जीवोपमित भाग का पृष्ठ भाग दक्षिण में ९७६६-१/१९ योजन से कुछ अधिक है । यह परिधि की अपेक्षा से वर्णन है ।
भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र का आकार - स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उसका अति समतल रमणीय भूमिभाग है । वह मुरज के ऊपरी भाग आदि के सदृश समतल है । वह अनेकविध पंचरंगी मणियों तथा तृणों से सुशोभित है । दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का आकारस्वरूप कैसा है ? गौतम ! दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई, आयुष्य बहुत प्रकार का है । वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं । आयुष्य भोगकर कई नरकगति में, कई तिर्यञ्चगति में, कई मनुष्यगति में तथा कई देवगति में जाते हैं और कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ।
[१३] भगवन् ! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत कहाँ है ? गौतम ! उत्तरार्ध भरतक्षेत्र के दक्षिण में, दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के उत्तर में, पूर्व-लवण समुद्र के पश्चिम में, पश्चिम- लवणसमुद्र के पूर्व में है । वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्व - लवणसमुद्र का तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी - लवण - समुद्र का स्पर्श किये हुए है । वह पच्चीस योजन ऊंचा है और सवा छह योजन जमीन में गहरा है । वह पचास योजन लम्बा है । इसकी बाहा - पूर्व-पश्चिम में ४८८ - १६ / १९ योजन है । उत्तर में वैताढ्यपर्वत की जीवा पूर्वी किनारे से पूर्व लवणसमुद्र का तथा पश्चिम किनारे से पश्चिमलवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है । जीवा १०७२-१२/१९ योजन लम्बी है । दक्षिण में उसकी धनुष्यपीठिका की परिधि १०७४३ - १५/१९ योजन है । वैताढ्य पर्वत रुचकसंस्थान - संस्थित है, वह सर्वथा रजतमय है । स्वच्छ, सुकोमल, चिकना, घुटा हुआ-सा, तराशा हुआ-सा, रज-रहित, मैल-रहित कर्दम-रहित तथा कंकड़- रहित है । वह प्रभा, कान्ति एवं उद्योत से युक्त है, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है । वह अपने दोनों पार्श्वभागों में दो पद्मवेदिकाओं तथा वन खंडों से सम्पूर्णतः घिरा है । वे पद्मवरवेदिकाएँ आधा योजन ऊँची तथा पाँच सौ धनुष चौड़ी हैं, पर्वत जितनी ही लम्बी हैं । वे वन-खंड कुछ कम दो योजन चौड़े हैं, कृष्ण वर्ण तथा कृष्ण आभा से युक्त हैं । वैताढ्य पर्वत के पूर्व-पश्चिम में दो गुफाएं हैं । वे उत्तर-दक्षिण लम्बी तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ी हैं । उनकी लम्बाई पचास योजन, चौड़ाई बारह योजन तथा ऊंचाई आठ योजन है । उनके वज्ररत्नमय-कपाट हैं, दो