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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
पद्मवरवेदिका का वर्णन जैसा जीवा जीवाभिगमसूत्र में आया है, वैसा ही यहाँ समझ लेना । वह ध्रुव, नियत, शाश्वत (अक्षय, अव्यय, अवस्थित) तथा नित्य है ।
[५] उस जगती के ऊपर तथा पद्मवरवेदिका के बाहर एक विशाल वन-खण्ड है । वह कुछ कम दो योजन चौड़ा है । उसकी परिधि जगती के तुल्य है । उसका वर्णन पूवोक्त आगमों से जान लेना चाहिए ।
[६] उस वन-खंड में एक अत्यन्त समतल रमणीय भूमिभाग है । वह आलिंगपुष्कर-चर्म-पुट, समतल और सुन्दर है । यावत् बहुविध पंचरंगी मणियों से, तृणों से सुशोभित है । कृष्ण आदि उनके अपने-अपने विशेष वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श तथा शब्द हैं । वहाँ पुष्करिणी, पर्वत, मंडप, पृथ्वी-शिलापट्ट हैं । वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव एवं देवियां आश्रय लेते हैं, शयन करते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं, त्वर्वतन करते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं, क्रीडा करते हैं, सुरत-क्रिया करते हैं । यों वे अपने पूर्व आचरित शुभ, कल्याणकर विशेष सुखों का उपभोग करते हैं । उस जगती के ऊपर पद्मवखेदिका के भीतर एक विशाल वनखंड है । वह कुछ कम दो योजन चौड़ा है । उसकी परिधि वेदिका जितनी है । वह कृष्ण यावत् तृणों के शब्द से रहित है ।
[७] भगवन् ! जम्बूद्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार द्वार है-विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजित ।
[८] भगवन् ! जम्बूद्वीप का विजय द्वार कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप स्थित मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में ४५ हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप के पूर्व के अंत में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में सीता महानदी पर जम्बूद्वीप का विजय द्वार है । वह आठ योजन ऊँचा तथा चार योजन चौड़ा है । उसका प्रवेश-चार योजन का है । वह द्वार श्वेत है । उसकी स्तूपिका, उत्तम स्वर्ण की है । द्वार एवं राजधानी का वर्णन जीवाभिगमसूत्र के समान जानना ।
[९] जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अबाधित अन्तर कितना है ? [१०] गौतम ! वह ७९०५२ योजन एवं कुछ कम आधे योजन का है ।
[११] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत नामक वर्ष-क्षेत्र कहाँ है ? गौतम ! चुल्ल हिमवंत पर्वत के दक्षिण में, दक्षिणवर्ती लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्ववर्ती लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमवर्ती लवणसमुद्र के पूर्व में है । इसमें स्थाणुओं, काँटों, ऊँची-नीची भूमि, दुर्गमस्थानों, पर्वतों, प्रपातों, अवझरों, निझरों, गड्डों, गुफाओं, नदियों, द्रहों, वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं, विस्तीर्ण वेलों, वनों, वनैले हिंसक पशुओं, तृणों, तस्करों, डिम्बों, विप्लवों, डमरों, दुर्भिक्ष, दुष्काल, पाखण्ड, कृपणों, याचकों, ईति, मारी, कुवृष्टि, अनावृष्टि, रोगों, संक्लेशों, क्षणक्षणवर्ती संक्षोभों की अधिकता है-अधिकांशतः ऐसी स्थितियाँ हैं ।
वह भरतक्षेत्र पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है । उत्तर में पर्यंकसंस्थान और दक्षिण में धनुपृष्ठ-संस्थान-संस्थित है, तीन ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है । गंगामहानदी, सिन्धुमहानदी तथा वैताढ्यपर्वत से इस भरत क्षेत्र के छह विभाग हो गये हैं । इस जम्बूद्वीप के १९० भाग करने पर भरतक्षेत्र उसका एक भाग होता है । इस प्रकार यह ५२६-६/१९ योजन चौड़ा है । भरत क्षेत्र के ठीक बीच में वैताढ्य पर्वत है, जो