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१. आगम - सम्पादन की कल्पना
सत्य को खोजने और सत्य को जानने की मनोवृत्ति सदा से रही है । मनुष्य ने अनावृत को आवृत करने का प्रयत्न आवश्यकता के लिए ही नहीं किया अपितु कुछ नया करने की उत्कण्ठा ने भी उस दिशा में प्रेरित किया । कभी-कभी कुछ निमित्त ऐसे मिलते हैं, जो सत्यशोध की दिशा में व्यक्ति को गतिमान बना देते हैं। ऐसा ही एक प्रेरक प्रसंग आचार्य तुलसी के जीवन में निमित्त बना ।
आचार्यश्री तुलसी अपने श्वेत संघ के साथ मुंबई में चतुर्मास और मर्यादा - महोत्सव सम्पन्नकर खानदेश की यात्रा पर चल पड़े। पूना में अल्पकालीन प्रवास कर नारायण गांव की ओर जाते हुए एक दिन 'मंचर' गांव में विश्राम किया । वि. सं. २०११ फाल्गुन शुक्ला दसमी का सुहावना दिन था। जिस मकान में आचार्यश्री ठहरे हुए थे उस मकान मालिक के वहां बौद्धपत्र 'धर्मदूत' को देखकर आचार्यश्री के मन में आगमों पर कुछ कार्य करने की कल्पना उठी। आपने मुनिश्री नथमलजी को बुलाकर कहा - 'जैनागमों के हिन्दी अनुवाद के लिए अनेक व्यक्ति मुझसे कहते रहते हैं । मेरी स्वयं की इच्छा भी है । पर एक ओर यात्रा, दूसरी ओर इतना गुरुतर कार्य, यह कैसे बने ?' आचार्यश्री के हृदय को स्पर्श करते हुए मुनिश्री नथमलजी ने कहा- 'यह कार्य कठिन बात नहीं है । यदि आचार्यश्री का ध्यान अभी अभी आगम-शोध का कार्य आरम्भ करने का हो तो निश्चय हो जाना चाहिए। कार्यकर्ता स्वयं पैदा होंगे। सामग्री अपने आप जुटेगी। आपके संकल्प को फलने में सन्देह नहीं है । '
इस आत्म-विश्वास की वाणी को सुनकर आचार्यश्री का संकल्प और बलवान् बना और उसी दिन यह निश्चय कर लिया कि आगम-कार्य को प्रारंभ करना है ।