Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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भेद, इस तरह रूपी अजीव के पांच सौ तीस भेद और अरूपी अजीव के दस भेद का निरूपण हुआ है।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से अस्तिकाय शब्द 'अस्ति' और 'काय' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। अस्ति का अर्थ है 'सत्ता' अथवा 'अस्तित्व' है और काय का अर्थ यहाँ पर शरीररूप अस्तिवान् के रूप में नहीं हुआ है। क्योंकि पंचास्तिकाय में पुद्गल के अतिरिक्त शेष अमूर्त हैं, अतः यहाँ काय का लाक्षणिक अर्थ है—जो अवयवी द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय हैं और जो निरवयव द्रव्य है, वह अनस्तिकाय है। अपर शब्दों में यों कह सकते हैं जिसमें विभिन्न अंश या हिस्से हैं, वह अस्तिकाय है। यहाँ यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि अखण्ड द्रव्यों में अंश या अवयव की कल्पना करना कहाँ तक तर्कसंगत है? क्योंकि धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक एक हैं, अविभाज्य और अखण्ड हैं। अतः उनके अवयवी होने का तात्पर्य क्या है? कायत्व का अर्थ 'सावयवत्व' यदि हम मानते हैं तो एक समस्या यह उपस्थित होती है कि परमाणु तो अविभाज्य, निरंश और निरवयव है तो क्या वह अस्तिकाय नहीं है? परमाणु पुद्गल का ही एक विभाग है और फिर भी उसे अस्तिकाय माना है। इन सभी प्रश्नों पर जैन मनीषियों ने चिन्तन किया है। उन्होंने उन सभी प्रश्नों का समाधान भी किया है। यह सत्य है कि धर्म, अधर्म और आकाश अविभाज्य और अखण्ड द्रव्य हैं, पर क्षेत्र की दृष्टि से वे लोकव्यापी हैं। इसलिए क्षेत्र की अपेक्षा से सावयवत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना वैचारिक स्तर पर की गई है। परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और निरवयव है पर परमाणु स्वयं कायरूप नहीं है, पर जब वह परमाणु स्कन्ध का रूप धारण करता है तो वह कायत्व सावयवत्व को धारण कर लेता है। इसलिए परमाणु में भी कायत्व का सद्भाव माना है। ___ अस्तिकाय और अनस्तिकाय इस प्रकार के वर्गीकरण का एक आधार बहुप्रदेशत्व भी माना गया है। जो बहुप्रदेशत्व द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय हैं और एक प्रदेशी द्रव्य अनस्तिकाय हैं। यहाँ भी यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य स्वद्रव्य की अपेक्षा से तो एकप्रदेशी हैं, चूँकि वे अखण्ड हैं। सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र ने इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए स्पष्ट लिखा है कि -धर्म, अधर्म और आकाश में बहुप्रदेशत्व द्रव्य की अपेक्षा से नहीं है अपितु क्षेत्र की अपेक्षा से है।६७ क्षेत्र की दृष्टि से भी धर्म और अधर्म को असंख्यप्रदेशी कहा है और आकाश को अनन्त प्रदेशी कहा है। इसलिए उपचार से उनमें कायत्व की अवधारणा की गई है। पुद्गल परमाणु की अपेक्षा से नहीं, किन्तु स्कन्ध की अपेक्षा से बहुप्रदेशी है और अस्तिकाय भी बहुप्रदेशत्व की दृष्टि से है। परमाणु स्वयं पुद्गल का एक अंश है। यहाँ पर कायत्व का अर्थ विस्तारयुक्त होता है। विस्तार की प्रस्तुत अवधारणा क्षेत्र की अवधारणा पर अवलम्बित है। जो द्रव्य विस्तार रहित हैं वे अनस्तिकाय हैं। विस्तार से यहाँ तात्पर्य है -जो द्रव्य जितने-जितने क्षेत्र को अवगाहन करता है, वही उसका विस्तार है। ___एक जिज्ञासा यह भी हो सकती है कि कालद्रव्य लोकव्यापी है, फिर उसे अस्तिकाय क्यों नहीं माना गया? उत्तर यह है कि कालाणु लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित है। किन्तु हरएक कालाणु अपने-आप में स्वतंत्र है। स्निग्धता और रूक्षतागुण के अभाव में उनमें बंध नहीं होता, अत: वे परस्पर निरपेक्ष रहते हैं। ६७. यावन्मात्रं आकाशं अविभागि पुद्गलावष्टब्धम्। तं खलु प्रदेशं जानीहि सर्वाणुस्थानदानार्हम्॥-द्रव्यसंग्रह संस्कृत छाया २७
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