________________ महाभारत'3' में और संयुक्तनिकाय 32 में मणिभद्र यक्ष का उल्लेख है। मत्स्यपुराण में पूर्णभद्र के पुत्र का नाम हरिकेश यक्ष बताया है। 33 ग्रोपपातिक में चम्पानगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य का उल्लेख है। 134 यावश्यकनियुक्ति के अनुसार भगवान् महावीर जब छद्मस्थ अवस्था में ध्यानमुद्रा में खड़े थे तब 'बिभेलक' यक्ष ने उपद्रव से उनकी रक्षा की थी। 135 ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार शैलक यक्ष चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन लोगों की सहायता के लिए तत्पर रहता था। उसने चम्पानगरी के जिनपाल और जिनरक्षित की रत्नादेवी से रक्षा की थी। 36 सन्तानोत्पति के लिए हरिणगमैषी देव की उपासना की जाती थी।१३७ वैदिक ग्रन्थों में 'हरिणगमैषी' हरिण के सिर वाला और इन्द्र का सेनापति था। महाभारत में उसको अजामुख बताया है / ' 38 जैन साहित्य की दृष्टि से 'हरिण गमैषी' सौधर्म देवलोक का देव था, न कि यक्ष / आगम के व्याख्यासाहित्य में अनेक स्थलों पर यक्ष के उपद्रवों का उल्लेख है। यक्षों से अपने आपको सुरक्षित रखने के लिए यह उत्सव होता था।१36 'भूतमह' नवम उत्सव था / हिन्दू पुराणों में भूतों को भयंकर प्रकृति के धनी और मांस-भक्षी कहा है। भूतों को बलि देकर प्रसन्न किया जाता था। 'भूतमह' चैत्री पर्णिमा को मनाया जाता था। महाभारत में तीन प्रकार के भूतों का उल्लेख है-उदासी, प्रतिकूल और दयालु / 140 रात्रि में परिभ्रमण करने वाले भूत 'प्रतिकूल' माने गये हैं / 141 भूतगृह से पीड़ित मानवों की चिकित्सा भूतविद्या के द्वारा की जाती थी। कहा जाता है'कुत्तियावण' में सभी वस्तुएँ मिलती थीं। वहाँ पर भूत भी मिलते थे। राजा प्रद्योत के समय उज्जयिनी में इस प्रकार की दुकानें थी, जहाँ पर मनोवाञ्छित वस्तुएँ मिलती थीं। भगकच्छ का एक व्यापारी उज्जयिनी में भूत को खरीदने के लिए आया था। दुकानदार ने उसे बताया-आपको भूत तो मिल जायेगा पर आपने यदि उस भूत को कोई काम न बताया तो वह अापको समाप्त कर देगा। व्यापारी भूत को लेकर वहाँ से प्रस्थित हुप्रा / वह उसे जो भी कार्य बताता चुटकियों में सम्पन्न कर देता था। अन्त में भूत से तंग आकर उस व्यापारी ने एक खम्भा 131. (क) 'द ज्योग्रफिकल कन्टेन्ट्स ऑव महाभारत' लेखक--डा. सिल्वन लेवी (ख) महाभारत-२।१०।१० 132. संयुक्तनिकाय--१.१०, पृष्ठ-२०९ 133. मत्स्यपुराण, अध्याय-१८० 134. ग्रोपपातिक, चम्पावर्णन, पूर्णभद्र चैत्य--पृष्ठ 4 युवाचार्य मधुकर मुनि 135. अावश्यकनियुत्ति-४८७ 136. (क) ज्ञातृधर्मकथा 9, पृष्ठ 127 (ख) तुलना कीजिए-वलाहस्स जातक (196), 2, पृष्ठ 292 137. अन्तगडदशा-२, पृष्ठ-१५ 138. द. यक्षाज, वाशिंगटन, 1928, 1939. ले. कुमारस्वामी ए. के. 139. (क) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 24, पृष्ठ-१२० (ख) बृहत्कल्पसूत्र-६.१२ तथा भाष्य / 140. (क) देखिए–इपिक माइथोलोजी, स्ट्रासबर्ग 1915 -डा. हॉपकिन्स ई. डबल्यू. (ख) कथासरित्सागर, सोमदेव, सम्पादक-पेंजर, भाग. 1, परि.१.१४२४-२८ प्रका. लन्दन 141. इपिक माइथॉलोजी, स्ट्रासबर्ग 1915, पृष्ठ-३६ -डा. हॉपकिन्स ई. डबल्यू. [ 33 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org