________________ 148 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र चित्त सारथी क्योंकि भदन्त ! वह वनखंड उपसर्ग (त्रास, भय, दुःख) सहित होने से रहने योग्य नहीं है। यह सुनकर केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी को समझाने के लिये कहा- इसी प्रकार हे चित्त ! तुम्हारी सेयविया नगरी कितनी ही अच्छी हो, परन्तु वहाँ भी प्रदेशी नामक राजा रहता है। वह अधार्मिक यावत् (अधर्म को प्रिय मानने वाला, अधर्म का कथन और प्रचार करने वाला, अधर्म का अनुसरण करने वाला, सर्वत्र अधर्म-प्रवृत्तियों को देखने वाला, विशेषरूप में अधार्मिक आचारविचारों का प्रचार करने वाला अथवा अधर्ममय प्रवृत्तियों का प्रचलन--उत्पन्न करने वाला, प्रजा को अधर्माचरण की ओर प्रेरित करने वाला, अधर्ममयस्वभाव और प्राचार वाला, अधर्म से ही आजीविका चलाने वाला है। अपने आश्रितों को सदैव जीवों को मारने, छेदने, भेदने की प्राज्ञा देने वाला है। उसके हाथ सदा खन से भरे रहते हैं। वह साक्षात पाप का अवतार है। स्वभाव से प्रचंड क्रोधी, भयानक, क्षुद्र-अधम और बिना विचारे प्रवृत्ति करने वाला है। धूर्त-बदमाशों को प्रोत्साहन देने वाला, उकसाने वाला, लांच रिश्वत लेने वाला, वंचक-धोखा देने वाला, मायावी, कपटी, वकवत्तिवत् प्रवृत्ति करने वाला, कुट कपट करने में चतुर और किसी-न-किसी उपाय से दूसरों को दुःख देने वाला है। शील और व्रतों से रहित है, क्षमा आदि गुणों का अभाव होने से निर्गुण है, निर्मर्याद है, उसके मन में प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि करने का विचार ही नहीं आता है / अनेक द्विपद, चतुष्पदमृग, पशु, पक्षी, सर्प आदि सरीसृपों की हत्या करने, उन्हें मारने, प्राणरहित करने, उनका विनाश करने से साक्षात् अधर्मरूप केतु-जैसा है। गुरुजनों का कभी विनय नहीं करता है, उनको प्रादर देने के लिये प्रासन से भी खड़ा नहीं होता और) प्रजाजनों से राज-कर लेकर भी उनका अच्छी तरह से पालन-पोषण और रक्षण नहीं करता है / अतएव हे चित्त ! मैं उस सेयाविया नगरी में कैसे या सकता हूँ? विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में साधु की विहारचर्या का संकेत किया है कि साधु को उन ग्राम, नगर या जनपदों में नहीं जाना चाहिये, जहाँ राज्य-व्यवस्था उचित नहीं हो, राजभय से प्रजा का जीवन संकट में हो, शासक अन्यायी हो अथवा दुभिक्ष महामारी का प्रकोप हो, युद्ध की आशंका हो, युद्ध हो रहा हो। क्योंकि ऐसे स्थानों में यथाकल्प साध्वाचार का पालन किया जाना संभव नहीं है। २२७-तए णं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं एवं क्यासी कि णं भंते ! तुन्भं पएसिणा रन्ना कायव्वं ? अस्थि णं भंते ! सेयबियाए नगरीए अन्ने बहवे डेसर-तलवर जाव सत्थवाहपभिइनो जे ण देवाणाप्पय वादस्सीत नम भिहनो जे णं देवाणपियं बंदिस्संति नमंसिस्संति जाव पज्जवासिस्संति विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभिस्संति, पाडिहारिएण पोढ-फलग-सेज्जा-संथारेणं उबनिमंतिस्संति। तए णं से केसी कुमारसमणे चित्तं साहिं एवं वयासी-अवि या इं चित्ता ! जाणिस्सामो। २२७–इस उत्तर को सुनकर चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया--हे भदन्त ! आपको प्रदेशी राजा से क्या करना है क्या लेना-देना है ? भगवन् ! सेयविया नगरी में दूसरे राजा, ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि बहुत से जन हैं, जो आप देवानुप्रिय को वंदन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org