________________ 190] [ राजप्रश्नीयसूत्र केशी कुमारश्रमण-उसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी व्यवहारी हो, अव्यवहारी नहीं हो। अर्थात् तुमने मेरे साथ यद्यपि शिष्टजनमान्य वाग-व्यवहार नहीं किया, फिर भी मेरे प्रति भक्ति और संमान प्रदर्शित करने के कारण व्यवहारी हो। ' २६४-तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं बयासी--- तुज्झे णं भंते ! इय छया दक्खा जाव उवएसलद्धा, समत्या णं भंते ! ममं करयलंसि वा मामलयं जीवं सरीराम्रो अभिनिवट्टित्ताणं उवदंसित्तए ? तेणं कालेणं तेणं समएणं पएसिस्स रणो अदूरसामंते वाउयाए संवृत्ते, तणवणस्सइकाए एयइ वेयइ चलइ फंदइ घट्टइ उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ / तए णं केतो कुमारसमणे पएसिराय एवं वयासीपाससि णं तुमं पएसी राया ! एयं तणवणस्सई एयंत जाव तं तं भावं परिणमंतं ? हंता पासामि। जाणासि णं तुम पएसी! एयं तणवणस्सइकायं कि देवो चालेइ, असुरो वा चालेइ, णागो वा, किन्नरो वा चालेइ, किंपुरिसो वा चालेइ, महोरगो वा चालेइ, गंधव्यो वा चालेइ ? हंता जाणामि–णो देवो चालेइ जाव णो गंधवो चालेइ, वाउयाए चालेइ / पाससि गं तुम पएसी ! एतस्स वाउकायस्स सरूविस्स सकामस्स सरागस्स समोहस्स सवेयरस सलेसस्स ससरीरस्स रूवं? णो तिण? (सम?)। __ जइ णं तुमं पएसी राया ! एयरस वाउकायस्स सरूविस्स जाव ससरीरस्स रूवं न पाससि तं कहं णं पएसो! तय करयलंसि वा प्रामलगं जोवं उवदंसिस्सामि ? एवं खलु पएसी! दसटाणाई छ उमत्थे मणुस्से सब्वभावेणं न जाणइ न पास इ, तंजहा–धम्मत्थिकायं 1, अधम्मस्थिकायं 2, प्रागासस्थिकायं 3, जीवं असरीरबद्ध 4, परमाणपोग्गलं 5, सई 6, गंधं 7, वायं 8, अयं जिणे भविस्सइ वा णो भविस्सइ 6, अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा नो वा 10 / एताणि चेव उप्पननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ तं जहा-धम्मत्थिकायं जाव नो वा करिस्सइ, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसो ! जहा–प्रन्नो जीबो तं चेव / / २६४-तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा-हे भदन्त ! आप अवसर को जानने में निपुण हैं, कार्यकुशल हैं यावत् आपने गुरु से शिक्षा प्राप्त की है तो भदन्त ! क्या आप मुझे हथेली में स्थित आंवले की तरह शरीर से बाहर जीव को निकालकर दिखाने में समर्थ हैं ? प्रदेशी राजा ने यह कहा ही था कि उसी काल और उसी समय प्रदेशी राजा से अति दूर नहीं अर्थात् निकट ही हवा के चलने से तृण-घास, वृक्ष आदि वनस्पतियां हिलने-डुलने लगीं, कंपने लगीं, फरकने लगीं, परस्पर टकराने लगीं, अनेक विभिन्न रूपों में परिणत होने लगीं। ___ तब केशी कुमारश्रमण ने राजा प्रदेशी से पूछा-हे प्रदेशी ! तुम इन तृणादि वनस्पतियों को हिलते-डुलते यावत् उन-उन अनेक रूपों में परिणत होते देख रहे हो? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org