Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 235
________________ प्रदेशी की परंपरागत मान्यता का निराकरण ] [193 शाला (घर) हो और कोई एक पुरुष उस कूटाकारशाला में अग्नि और दीपक के साथ घुसकर उसके ठीक मध्यभाग में खड़ा हो जाए / तत्पश्चात् उस कूटाकारशाला के सभी द्वारों के किवाड़ों को इस प्रकार सटाकर अच्छी तरह बंद कर दे कि उनमें किंचिन्मात्र भी सांध-छिद्र न रहे / फिर उस कटाकारशाला के बीचोंबीच उस प्रदीप को जलाये तो जलाने पर वह दीपक उस कारशाला के अन्तर्वर्ती भाग को ही प्रकाशित, उद्योतित, तापित और प्रभासित करता है, किन्तु बाहरी भाग को प्रकाशित नहीं करता है। अब यदि वही पुरुष उस दीपक को एक विशाल पिटारे से ढंक दे तो वह दीपक कुटाकार. शाला की तरह उस पिटारे के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करेगा किन्तु पिटारे के बाहरी भाग को प्रकाशित नहीं करेगा। इसी तरह गोकिलिंज (गाय को घास रखने का पात्र-डलिया), पच्छिकापिटक (पिटारी), गंडमाणिका (अनाज को मापने का बर्तन), आढ़क (चार सेर धान्य मापने का पात्र), अर्धाढक, प्रस्थक, अर्धप्रस्थक, कुलव, अर्धकुलव, चतुर्भागिका, अष्टभागिका, षोडशिका, द्वात्रिंशतिका, चतुष्पष्टिका अथवा दीपचम्पक (दीपक का ढ़कना) से ढंके तो वह दीपक उस ढक्कन के भीतरी भाग को हो प्रकाशित करेगा, ढक्कन के बाहरी भाग को नहीं और न चतुष्पष्टिका के बाहरी भाग को, न कुटाकारशाला को, न कूटाकारशाला के बाहरी भाग को प्रकाशित करेगा। इसी प्रकार हे प्रदेशी ! पूर्वभवोपार्जित कर्म के निमित्त से जीव को क्षुद्र-छोटे अथवा महत्बड़े जैसे भी शरीर को निष्पत्ति-प्राप्ति होती है, उसी के अनुसार आत्मप्रदेशों को संकुचित और विस्तृत करने के स्वभाव के कारण वह उस शरीर को अपने असंख्यात आत्मप्रदेशों द्वारा सचित्त अर्थात् प्रात्मप्रदेशों से व्याप्त करता है / अतएव प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो-इस बात पर विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं और शरीर जीव नहीं है। विवेचन–प्रस्तत सूत्र में दीपक को ढंकने पर उन-उन के भीतरी भाग को प्रकाशित करने के लिये जिन पात्रों (बर्तनों) के नामों का उल्लेख किया है, वे सभी प्राचीनकाल में मगध देश में प्रचलित-गेहूँ, चावल, आदि धान्य तथा घी, तेल आदि तरल पदार्थ मापने के साधन-माप हैं / गंडमाणिका से लेकर अर्धकुलव पर्यन्त के मापों से धान्य और चतुर्भागिका आदि चतुष्पष्टिका पर्यन्त के पात्रों से तरल पदार्थों को मापा जाता था। वैदिक दर्शनों में आत्मा के आकार और परिमाण के विषय में अणमात्र से लेकर सर्वदेशव्याप्त तक मानने की कल्पनायें हैं / वे प्रमाणसिद्ध नहीं हैं और न वैसा अनुभव ही होता है / इसीलिये उन सब कल्पनाओं का निराकरण और प्रात्मा के सही परिमाण का निर्देश सूत्र में किया गया है कि न तो आत्मा अणु-प्रमाण है और न सर्वलोक व्यापी आदि है। किन्तु कर्मोपाजित शरीर के आकार के अनुरूप होकर जीव के असंख्यात प्रदेश उस समस्त शरीर में व्याप्त रहते हैं। प्रदेशी की परंपरागत मान्यता का निराकरण २६६-तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं क्यासी-एवं खलु भंते ! मम प्रज्जगस्स एस सन्ना जाव समोसरणे जहा- तज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं। तयाणंतरं च णं ममं पिउणो वि एस सण्णा, तयाणंतरं मम वि एसा सण्णा जाव समोसरणं, तं नो खलु अहं बहुपुरिसपरंपरागयं कुलनिस्सियं दिट्टि छडेस्सामि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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