________________ 196 ] [राजप्रश्नीयसूब बहुत-सा लोहा ले सकते हैं / इसलिये देवानुप्रियो ! हमें इस लोहे के भार को छोड़कर सीसे का पोटला बांध लेना योग्य है। ऐसा कहकर आपस में एक दूसरे ने इस विचार को स्वीकार किया और लोहे को छोड़कर सीसे के भार को बांध लिया। किन्तु उनमें से एक व्यक्ति लोहे को छोड़कर सीसे के भार को बांधने के लिये तैयार नहीं हुआ। तब दूसरे व्यक्तियों (साथियों) ने अपने उस साथी से कहा-देवानुप्रिय ! हमें लोहे की अपेक्षा इस सीसे का संग्रह करना अधिक अच्छा है, यावत् हम इस थोड़े से सीसे से बहुत-सा लोहा प्राप्त कर सकते हैं / अतएव देवानुप्रिय ! इस लोहे को छोड़कर सीसे का भार बांध लो। तब उस व्यक्ति ने कहा-देवानुप्रियो ! मैं इस लोहे के भार को बहुत दूर से लादे चला पा रहा हूँ। देवानुप्रियो ! इस लोहे को बहुत समय से लादे हुए हूँ / देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे को बहुत ही कसकर बांधा है। देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे का अशिथिल बंधन से बांधा है / देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे को अत्यधिक प्रगाढ़ बंधन से बांधा है / इसलिए मैं इस लोहे को छोड़कर सीसे के भार को नहीं बांध सकता हूँ। तब दूसरे साथियों ने उस व्यक्ति को अनुकल-प्रतिकूल सभी तरह की आख्यापना (सामान्य रूप से प्रतिपादन करने वाली बाणी) से, प्रज्ञापना (विशेष रूप से प्रतिपादन करने वालो-समझान वाली-वाणी) से समझाया। लेकिन जब वे उस पुरुष को समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए तो अनुक्रम से आगे-आगे चलते गये और वहाँ-वहाँ पहुँचकर उन्होंने तांबे की, चांदी की, सोने की, रत्नों की और हीरों की खाने देखीं एवं इनको जैसे-जैसे बहुमूल्य वस्तुएँ मिलती गई, वैसे-वैसे पहले-पहले के अल्प मूल्य वाले तांबे आदि को छोड़कर अधिक-अधिक मूल्यवाली वस्तुओं को बांधते गये। सभी खानों पर उन्होंने अपने उस दुराग्रही साथी को समझाया किन्तु उसके दुराग्रह को छुड़ाने में वे समर्थ नहीं हुए। इसके बाद वे सभी व्यक्ति जहाँ अपना जनपद-देश था और देश में जहाँ अपने-अपने नगर थे, वहाँ आये। वहाँ आकर उन्होंने हीरों को बेचा। उससे प्राप्त धन से अनेक दास-दासी, गाय, भैस और भेड़ों को खरीदा, बड़े-बड़े आठ-आठ मंजिल के ऊंचे भवन बनवाये और इसके बाद स्नान, बलिकर्म आदि करके उन श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपरी भागों में बैठकर बजते हुए मृदंग आदि वाद्योंनिनादों एवं उत्तम तरुणियों द्वारा की जा रही नृत्य-गान युक्त बत्तीस प्रकार की नाट्य लीलाओं को देखते तथा साथ ही इष्ट शब्द, स्पर्श यावत् (रस, रूप और गंध मूलक मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगते हुए अपना-अपना समय) व्यतीत करने लगे। वह लोहवाहक पुरुष भी लोहमार को लेकर अपने नगर में पाया / वहाँ आकर उस लोहभार के लोहे को बेचा। किन्तु अल्प मूल्य वाला होने से उसे थोड़ा-सा धन मिला। उ ने अपने साथियों को श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपर रहते हुए यावत् (भोग-विलास में) अपना समय बिताते हुए देखा। देखकर अपने आपसे इस प्रकार कहने लगा-अरे ! मैं अधन्य, पुण्यहीन, अकृतार्थ, शुभलक्षणों से रहित, श्री-ही से वजित, हीनपुण्य चातुर्दशिक (कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को जन्मा हुआ), दुरंत-प्रान्त लक्षण वाला कुलक्षणी हूँ। यदि उन मित्रों, ज्ञातिजनों और अपने हितैषियों की बात मान लेता तो आज मैं भी इसी तरह श्रेष्ठ प्रासादों में रहता हुआ यावत् अपना समय व्यतीत करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org