Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 242
________________ 200 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र जया णं णट्टसाला वि गिज्जइ वाइज्जइ नच्चिज्जइ हसिज्जइ रमिज्जइ तया णं णसाला रमणिज्जा भवइ, जया णं नट्टसाला णो गिज्जइ जाव णों रमिज्जइ तया णं णसाला अरमणिज्जा भवति / जया णं इक्खुवाडे छिज्जइ भिज्जइ सिज्जइ पिज्जइ दिज्जइ तया णं इक्खुवाडे रमणिज्जे भवइ, जया णं इक्खुवाडे णो छिज्जइ जाव तया इक्खुवाडे प्ररमणिज्जे भवइ / जया णं खलवाडे उच्छुब्भइ उडुइज्जइ मलइज्जइ मुणिज्जइ खज्जइ पिज्जइ दिज्जइ तया णं खलवाडे रमणिज्जे भवति जया णं खलवाडे नो उच्छुभइ जाव अरमणिज्जे भवति / से तेणठेण पएसी ! एवं वुच्चइ मा णं तुमे पएसो! पुवि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा परमणिज्जे भविज्जासि जहा वणसंडे इ वा / २७२-राजा प्रदेशी को सेयविया नगरी की ओर चलने के लिये उद्यत देखकर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा इस प्रकार कहा-जैसे वनखंड अथवा नाट्यशाला अथवा इक्षुवाड (गन्ने का खेत) अथवा खलवाड (खलिहान) पर्व में रमणीय होकर पश्चात अरमणीय हो जाते हैं, उस प्रकार तुम पहले रमणीय (धार्मिक) होकर बाद में अरमणीय (अधार्मिक) मत हो जाना / / प्रदेशी-भदन्त ! यह कैसे कि वनखंड आदि पूर्व में रमणीय (मनोरम, सुन्दर) होकर बाद में अरमणीय हो जाते हैं ? ___ केशी कुमारश्रमण-प्रदेशी ! वनखंड आदि पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय ऐसे हो जाते हैं कि वनखंड जब तक हरे-भरे पत्तों, पुष्पों, फलों से संपन्न और अतिशय सुहावनी सघन छाया एवं हरियाली से व्याप्त होता है तब तक अपनी शोभा से अतीव-अतीव सुशोभित होता हा रमणीय लगता है। लेकिन वही वनखंड पत्तों, फलों, फलों और नाममात्र की भी हरियाली नई हराभरा, देदीप्यमान न होकर कुरूप, भयावना दिखने लगता है तब सूखे वृक्ष की तरह छाल-पत्तों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने, झर जाने, सड़ जाने, पीले और म्लान हो जाने से रमणीय नहीं रहता है। इसी प्रकार नाट्यशाला भी जब तक संगीत-गान होता रहता है, बाजे बजते रहते हैं, नृत्य होते रहते हैं, लोगों के हास्य से व्याप्त रहती है और विविध प्रकार की रमतें-क्रीडायें होती रहती हैं तब तक रमणीय-सुहावनी लगती है, किन्तु जब उसी नाट्यशाला में गीत नहीं गाये जा रहे हों यावत् क्रीडायें नहीं हो रही हो, तब वही नाट्यशाला असुहावनी हो जाती है / इसी तरह प्रदेशी ! जब तक इक्षुबाड़ (ईख के खेत) में ईख कटती हो, टूटती हो, पेरी जाती हो, लोग उसका रस पीते हों, कोई उसे लेते-देते हों, तब तक वह इक्षुवाड़ रमणीय लगता है। लेकिन जब उसी इक्षुवाड़ में ईख न कटती हो आदि तब वही मन को अरमणीय-अप्रिय, अनिष्टकर लगने लगती है। इसी प्रकार प्रदेशी ! जब तक खलवाड़ (खलिहान) में धान्य के ढेर लगे रहते हैं, उड़ावनी होती रहती है, धान्य का मर्दन (दांय) होता रहता है, तिल आदि पेरे जाते हैं, लोग एक साथ मिलकर भोजन खाते-पीते, देते-लेते हैं, तब तक वह रमणीय मालूम होता है, लेकिन जब धान्य के ढेर आदि नहीं रहते तब वही अरमणीय दिखने लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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