________________ 204] [ राजप्रश्नीयसूत्र देसगस्स धम्मायरियस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पासउ मे भगवं तत्थ गए इह गयं ति कटटबंदहनमंसह पवि पिणंमए केसिस्स कमारसमणस अंतिए थलपाणाइवाए पच्चक्खाए जाव परिगहे, तं इयाणि पिणं तस्सेव भगवतो अंतिए सम्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव परिग्गह, सव्वं कोहं जाव मिच्छादंसणसल्लं, अकरणिज्जं जोयं पच्चक्खामि, सव्वं प्रसणं चउन्विहं पि प्राहारं जावज्जीवाए पच्चक्खामि, जंपि य मे सरीरं इ8 जाव फुसंतु त्ति एवं पि य गं चरिमेहि ऊसासनिस्साहि वोसिरामि त्ति कटु आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सूरियामे विमाणे उववायसमाए जाव वण्णो / २७८-तत्पश्चात् प्रदेशी राजा सूर्यकान्ता देवी के इस उत्पात (षड्यंत्र, धोखे) को जानकर भी उस के प्रति मन में लेशमात्र भी द्वेष-रोष न करते हुए जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया। आकर उसने पौषधशाला की प्रमार्जना की, उच्चारप्रस्रवणभूमि (स्थंडिल भूमि) का प्रतिलेखन किया। फिर दर्भ का संथारा बिछाया और उस पर आसीन हुआ / आसीन होकर उसने पूर्व दिशा की ओर मुख करके पर्यंकासन (पद्मासन) से बैठकर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा अरिहंतों यावत् सिद्धगति को प्राप्त भगवन्तों को नमस्कार हो / मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक केशी कुमारश्रमण को नमस्कार हो / यहाँ स्थित मैं वहाँ विराजमान भगवान् की वंदना करता हूँ। वहाँ पर विरा र विराजमान वे भगवन यहाँ रहकर वंदना करने वाले मझे देखें। पहले भी मैंने केशी कुमारश्रमण के समक्ष स्थूल प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया है / अब इस समय भी मैं उन्हीं भगवन्तों की साक्षी से (यावज्जीवन के लिये) संपूर्ण प्राणातिपात यावत् समस्त परिग्रह, क्रोध यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का (अठारह पापस्थानों का) प्रत्याख्यान करता हूँ। प्रकरणीय (नहीं करने योग्य जैसे) समस्त कार्यों एवं मन-वचन-काय योग का प्रत्याख्यान करता हूँ और जीवनपर्यंत के लिये सभी अशन-पान आदि रूप चारों प्रकार के प्राहार का भी त्याग करता हूँ। __ यद्यपि मुझे यह शरीर इष्ट-प्रिय रहा है, मैंने यह ध्यान रखा है कि इसमें कोई रोग आदि उत्पन्न न हों परन्तु अब अंतिम श्वासोच्छ्वास तक के लिये इस शरीर का भी परित्याग करता हूँ। इस प्रकार के निश्चय के साथ पुनः आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक मरण समय के प्राप्त होने पर काल करके सौधर्मकल्प के सूर्याभविमान की उपपात सभा में सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न हुआ, इत्यादि पूर्व में किया गया समस्त वर्णन यहाँ कर लेना चाहिये। सूर्याभदेव का भावी जन्म २७६-तए णं से सूरियाभे देवे अहुणोववन्नए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छति, तं०-पाहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंवियपज्जत्तीए प्राणपाणपज्जत्तीए भास-मणपज्जत्तीए, तं एवं खलु भो ! सूरियाभेणं देवेणं दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुती दिव्वे देवाणुभावे लद्ध पत्ते अभिसमन्नागए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org