________________ प्रदेशी का संलेखना-मरण ] [203 हे पुत्र ! जब से प्रदेशी राजा ने श्रमणोपासक धर्म स्वीकार कर लिया है, तभी से राज्य यावत् अन्तःपुर, जनपद और मनुष्य संबंधी कामभोगों की ओर ध्यान देना बंद कर दिया है। इसलिये पुत्र ! तुम्हें यही श्रेयस्कर है कि शस्त्रप्रयोग आदि किसी-न-किसी उपाय से प्रदेशी राजा को मार कर स्वयं राज्यलक्ष्मी का भोग एवं प्रजा का पालन करते हुए अपना जीवन बिताओ। सूर्यकान्ता देवी के इस विचार को सुनकर सूर्यकान्त कुमार ने उसका आदर नहीं किया, उस पर ध्यान नहीं दिया किन्तु शांत-मौन ही रहा। तब सूर्यकान्ता रानी को इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि सूर्यकान्त कुमार प्रदेशी राजा के सामने मेरे इस रहस्य को प्रकाशित कर दे। ऐसा सोचकर सूर्यकान्ता रानी प्रदेशी राजा को मारने के लिये उसके दोष रूप छिद्रों को, कुकृत्य रूप आन्तरिक मर्मों को, एकान्त में सेवित निषिद्ध आचरण रूप रहस्यों को, एकान्त निर्जन स्थानों को और अनुकूल अवसर रूप अंतरों को जानने की ताक में रहने लगी। २७७–तए णं सूरियकंता देवी अन्नया कयाइ पएसिस्स रणो अंतरं जाणइ, असणं जाव खाइमं सव्वं वत्थ-गंध-मल्लालंकारं विसष्पजोगं पउंजइ, पएसिस्स रणो ण्हायस्स जाव पायच्छित्तस्स सुहासणवरगयस्स तं विससंजुत्तं असणं वत्थं जाव-प्रलंकारं निसिरेइ, घातइ / तए णं तस्स पएसिस्स रणो तं विससंजुत्तं असणं आहारेमाणस्स सरीरगंमि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विपुला पगाढा कक्कसा कडया फरुसा निठुरा चंडा तिव्वा दुक्खा दुग्गा दुरहियासा पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिया वि बिहरह। २७७--तत्पश्चात् किसी एक दिन अनुकूल अवसर मिलने पर सूर्यकान्ता रानी ने प्रदेशी राजा को मारने के लिये अशन-पान आदि भोजन में तथा शरीर पर धारण करने योग्य सभी वस्त्रों, सूधने योग्य सुगंधित वस्तुओं, पुष्पमालाओं और आभूषणों में विष डालकर विषैला कर दिया। इसके बाद जब वह प्रदेशी राजा स्नान यावत् मंगल प्रायश्चित्त कर भोजन करने के लिये सुखपूर्वक श्रेष्ठ आसन पर बैठा तब वह विषमिश्रित घातक अशन आदि रूप आहार परोसा तथा विषमय वस्त्र पहनाये यावत् विषमय अलंकारों से उसको शृगारित किया। ___ तब उस विषमिले आहार को खाने से प्रदेशी राजा के शरीर में उत्कट, प्रचुर, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, रौद्र, दुःखद, विकट और दुस्सह वेदना उत्पन्न हुई। विषम पित्तज्वर से सारे शरीर में जलन होने लगी। प्रदेशी का संलेखना-मरण २७८--तए णं से पएसी राया सूरियकताए देवीए अत्ताणं संपलद्धं जाणित्ता सूरियकताए देवीए मणसावि अप्पदुस्समाणे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, पोसहसालं पमज्जइ, उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, दम्भसंथारगं संयरेह, दम्भसंथारगं दुरूहइ, पुरस्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं अंजलि मत्थए त्ति कट्ट एवं वयासी नमोऽत्थु णं अरहताणं जाव' संपत्ताणं / नमोऽत्थु णं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मोव१. देखें सूत्र संख्या 199 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org