Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 247
________________ माता-पिता द्वारा कृत जन्मादि संस्कार] [205 सूरियामस्स णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता। गोयमा ! चत्तारि पलिप्रोवमाई ठिती पण्णत्ता। से णं सूरियामे देवे तानो लोगानो पाउखएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं प्रणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिति कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा! महाविदेहे वासे जाणि इमाणि कुलाणि भवंति, तं०-प्रडाई वित्ताई विउलाई विच्छिणविपलभवण-सयणासण-जाण-वाहणाई बधण-बहजातरूख-रयया आप्रो विच्छड्डियपउरभत्तपाणाई बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूयाई बहुजणस्स अपरिभूताई, तत्थ अन्नयरेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पच्चाइस्सइ / २७६-तत्काल उत्पन्न हुआ वह सूर्याभदेव पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ / वे पर्याप्तियां इस प्रकार हैं-१. आहारपर्याप्ति, 2. शरीरपर्याप्ति, 3. इन्द्रियपर्याप्ति, 4. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, 5. भाषा-मनःपर्याप्ति / इस प्रकार से हे गौतम ! उस सूर्याभदेव ने यह दिव्य देवद्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवानभाव-देवप्रभाव उपाजित किया है, प्राप्त किया है और अधिगत-अधीन किय गौतम-भदन्त ! उस सूर्याभदेव की प्रायुष्यमर्यादा कितने काल की है ? भगवान् गौतम ! उसकी आयुष्यमर्यादा चार पल्योपम की है। गौतम-भगवन् ! आयुष्य पूर्ण होने, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के अनन्तर सूर्याभदेव उस देवलोक से च्यवन करके कहाँ जायेगा ? कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान्–गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जो कुल पाठ्य-धन-धान्यसमृद्ध, दीप्त-प्रभावक, विपुलबड़े कुटुम्ब परिवारवाले, बहुत से भवनों, शय्याओं, आसनों और यानवाहनों के स्वामी, बहुत से धन, सोने-चांदी के अधिपति, अर्थोपार्जन के व्यापार-व्यवसाय में प्रवृत्त एवं दीनजनों को जिनके यहाँ से प्रचुर मात्रा में भोजनपान प्राप्त होता है, सेवा करने के लिये बहुत से दास-दासी रहते हैं, बहुसंख्यक गाय, भैंस, भेड़ आदि पशुधन है और जिनका बहुत से लोगों द्वारा भी पराभव-तिरस्कार नहीं किया जा सकता, ऐसे प्रसिद्ध कुलों में से किसी एक कुल में वह पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। माता-पिता द्वारा कृत जन्मादि संस्कार २८०-तए णं तंसि दारगंसि गब्भगयंसि चेव समाणसि अम्मापिऊणं धम्मे दढा पइण्णा भविस्सइ। तए णं तस्स दारयस्स नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं वितिक्कताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपंचिदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुदरंगं ससिसोमाकारं कंतं पियदसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठितिवडियं करेहिति, ततियदिवसे चंदसरदंसणिगं करिस्संति, छठे दिवसे जागरियं जागरिस्संति, एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते संपत्ते बारसाहे दिवसे णिवित्त असुइजायकम्मकरणे चोक्खे संमज्जिवलिते विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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