________________ दृढप्रतिज्ञ की अनासक्ति] [211 देने योग्य यह है कि उनके चयन में दीर्घदृष्टि से काम लिया गया है। उनमें जीवन की सुरक्षा के तीनों अंगों के साधनों का समावेश करने के साथ लोकव्यवहारों के निर्वाह करने की क्षमता और प्राकृतिक पदार्थों को अपने लिये उपयोगी बनाने और उनका समीचीन उपयोग करने की योग्यता अजित करने का लक्ष्य रखा गया है / ___ कलाओं के शिक्षण की प्राचीन पद्धति पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय शिक्षणपद्धति का स्तर क्या था? मात्र पुस्तकीय ज्ञान करा देना अथवा ग्रंथ रटा देना और वाणो द्वारा व्याख्या कर देना ही पर्याप्त नहीं माना जाता था, किन्तु प्रयोग द्वारा वैसा कार्य भी कराया जाता था। यदि उन कलाओं और शिक्षणपद्धति को सन्मुख रखकर आज की शिक्षा-नीति निर्धारित की जाये तो उपयोगी रहेगा। विद्वत्ता के लिये जैसे आज अनेक देशों की बोलियों पोर भाषाओं को जानना आवश्यक है, उसी तरह प्राचीन काल में भी कलाओं के अध्ययन के साथ प्रत्येक व्यक्ति और विशेषकर समृद्ध परिवारों में जन्मे व्यक्तियों और देश-विदेश में व्यापार के निमित्त जाने वालों के लिये अनेक भाषाओं का ज्ञाता होना अनिवार्य था। जो दृढ़प्रतिज्ञ के उत्पन्न होने के कुलों के लिये दिये विशेषणों से स्पष्ट है। यद्यपि यहाँ की तरह अन्य आगम-पाठों में भी 'अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए' पद आया है। वह वर्ण्य व्यक्ति की विशेषता बताने के लिये प्रयुक्त हुआ है। किन्तु वे अठारह भाषायें कौनसी थीं, इसका उल्लेख मूल पाठों में कहीं भी देखने में नहीं पाया है। हाँ समवायांग, प्रज्ञापना, विशेषावश्यकभाष्य और कल्पसूत्र की टीकाओं में अठारह लिपियों के नाम मिलते हैं। परन्तु इन नामों में भी भिन्नता है। इस स्थिति में यही माना जा सकता है कि उस समय बहुमान्य प्रचलित बोलियों को एक-एक भाषा माना जाता हो और उनको बोलने-समझने में निष्णात होने का बोध कराने के लिये हो 'अठारह भाषाविशारद' पद ग्रहण किया गया हो। २८५-तए णं तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जाव वियालचारि च वियाणित्ता विउलेहिं अन्नभोगेहि य पाणभोगेहि य लेणभोगेहि य वत्थभोगेहि य सयणभोगेहि य उनिमंतिहिति / २८५-तब उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को बाल्यावस्था से मुक्त यावत् विकालचारी जानकर माता-पिता विपुल अन्नभोगों, पानभोगों, प्रासादभोगों, वस्त्रभोगों और शय्याभोगों के योग्य भोगों को भोगने के लिये आमंत्रित करेंगे / अर्थात् माता-पिता उसे भोगसमर्थ जानकर कहेंगे कि हे चिरंजीव ! तुम युवा हो गये हो अतः अब कामभोगों की इस विपुल सामग्री का भोग करो। दृढप्रतिज्ञ की अनासक्ति __ २८६-तए णं दढपइण्णे दारए तेहि विउलेहि अन्नभोएहिं जाव सयणभोगेहि णो सज्जिहिति, णो गिझिहिति, णो मुच्छिहिति, णो अज्झोववजिहिति, से जहा णामए पउमुप्पले ति वा पउमे इ वा जाव सयसहस्सपत्तेति वा पंके जाते जले संवुड्ढे गोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पड जलरएणं, एवामेव दढपइण्णे वि दारए कामेहि जाते भोगेहिं संवटिए गोवलिप्पिहिति० मित्तणाइणियगसयण संबंधिपरिजणणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org