________________ प्रदेशी की प्रतिक्रिया एवं धावकधर्म-ग्रहण] [199 स्थित कमलिनीकुलों के विकासक सूर्य का उदय होने एवं जाज्वल्यमान तेज सहित सहस्ररश्मि दिनकर के प्रकाशित होने पर अन्तःपुर-परिवार सहित आप देवानुप्रिय की वन्दना-नमस्कार करने और अवमानना रूप अपने अपराध की वारंवार विनयपूर्वक क्षमापना के लिये सेवा में उपस्थित होऊं / ऐसा निवेदन कर वह जिस ओर से आया था, उसी ओर लौट गया / दूसरे दिन जब रात्रि के प्रभात रूप में रूपान्तरित होने यावत् जाज्वल्यमान तेज सहित दिनकर के प्रकाशित होने पर प्रदेशी राजा हष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होता हुअा कोणिक राजा की तरह दर्शनार्थ निकला। उसने अन्तःपुर-परिवार आदि के साथ पांच प्रकार के अभिगमपूर्वक वन्दननमस्कार किया और यथाविधि विनयपूर्वक अपने प्रतिकूल प्राचरण के लिये वारंवार क्षमायाचना की। विवेचन-पांच अभिगमों के नाम इस प्रकार हैं१. सचित्त द्रव्यों (पुष्प, पान आदि) का त्याग / 2. अचित्त द्रव्यों (वस्त्र, आभूषण आदि) का अत्याग / 3. एक शाटिका (दुपट्टा) का उत्तरासंग करना। 4. दृष्टि पड़ते ही दोनों हाथ जोड़ना। 5. मन को एकाग्र करना / २७१–तए णं केसी कुमारसमणे पएसिस्स रण्णो सूरियकंतप्पमुहाणं देवीणं तीसे य महतिमहालियाए महच्चपरिसाए जाव धम्म परिकहेइ / तए णं से पएसी राया धम्म सोच्चा निसम्म उठाए उठेति, केसिकुमारसमणं बंदइ नमसइ जेणेव सेयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। २७१-तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा, सूर्यकान्ता आदि रानियों और उस अति विशाल परिषद् को यावत् धर्मकथा सुनाई। इसके बाद प्रदेशी राजा धर्मदेशना सुन कर और उसे हृदय में धारण करके अपने आसन से उठा एवं केशी कुमारश्रमण को वंदन-नमस्कार किया। बंदन-नमस्कार करके सेयविया नगरी की ओर चलने के लिये उद्यत हुआ। २७२---तए णं केसी कुमारसमणे पएसिरायं एवं वदासी--मा णं तुम पएसी ! पुब्धि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा परमणिज्जे भविज्जासि, जहा से वणसंडे इ वा, गट्टसाला इ वा इक्खुवाडए इ वा, खलवाडए इ वा। कहं णं भंते ! ? वणसंडे पत्तिए पुफिए फलिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठइ, तया णं वणसंडे रमणिज्जे भवति / जया णं वणसंडे नो पत्तिए, नो पुफिए, नो फलिए नो हरियगरेरिज्जमाणे णो सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे चिटुइ तया गं जुन्ने झडे परिसडिय पंडुपत्ते सुक्करक्खे इव मिलायमाणे चिटुइ तया णं वणे णो रमणिज्जे भवति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org