Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 237
________________ प्रदेशी की परम्परागत मान्यता का निराकरण } [195 तए णं ते पुरिसा तं पुरिसं जाहे णो संचायति बहहि प्रावणाहि य पन्नवणाहि य प्रायवित्तए वा पण्णवित्तए वा तया अहाणुपुचीए संपत्थिया, एवं तंबागरं रुप्पागरं सुवण्णागरं रयणागरं वइरागरं। तए णं ते पुरिसा जेणेव सया जणवया, जेणेव साइं साई नगराई, तेणेव उवागच्छन्ति वयरविक्कणणं करेंति, सुबहुदासीदासगोमहिसगवेलगं गिण्हंति, अमृतलमूसियवडंसगे कारावेति, पहाया कयबलिकम्मा उप्पि पासायवरगया फुट्टमाणेहि मुइंगमस्थरहि बत्तीस इबद्धहि नाडएहि वरतरुणीसंपउत्तेहि उवणच्चिज्जमाणा उवलालिज्जमाणा इठे सद्द-फरिस-जाव विहरति / तए णं से पुरिसे अयभारेण जेणेव सए नगरे तेणेव उवागच्छइ, अयभारेणं गहाय प्रयविक्किणणं करेति, तंसि अप्पमोल्लंसि निहियंसि झीणपरिव्वए, ते पुरिसे उप्पि पासायवरगए जाव विहरमाणे पासति, पासित्ता एवं क्यासी-अहो! णं अहं अधन्नो अपुन्नो अकयस्थो अकयलक्खणो हिरिसिरिवज्जिए हीणपुण्णचाउद्दसे दुरंतपंतलकखणे / जति णं अहं मित्ताण वा णाईण वा नियगाण वा सुणेतो तो णं अहं पि एवं चेव उप्पि पासायवरगए जाव विहरतो। से तेणठेणं पएसी एवं वुच्चइ-मा तुमं पएसी पच्छाणुताविए भविज्जासि, जहा ब से पुरिसे प्रयभारिए। २६७-प्रदेशी राजा की बात सुनकर केशी कुमारश्रमण ने इस प्रकार कहा--प्रदेशी! तुम उस अयोहारक (लोहे के भार को ढोने वाले लोहवणिक) की तरह पश्चात्ताप करने वाले मत होप्रो। अर्थात् जैसे वह अयोहारक-लोहवणिक् पछताया उसी तरह तुम्हें भी अपनी कुलपरम्परागत अन्धश्रद्धा के कारण पछताना पड़ेगा। प्रदेशी-भदन्त ! वह अयोहारक कौन था और उसे क्यों पछताना पड़ा? केशी कुमारश्रमण- प्रदेशी! कुछ अर्थ (धन) के अभिलाषी, अर्थ की गवेषणा करने वाले, अर्थ के लोभी, अर्थ की कांक्षा और अर्थ को लिप्सा वाले पुरुष अर्थ-गवेषणा करने (धनोपार्जन करने) के निमित्त विपुल परिमाण में बिक्री करने योग्य पदार्थों और साथ में खाने-पीने के लिये पुष्कलपर्याप्त पाथेय (नाश्ता) लेकर निर्जन, हिंसक प्राणियों से व्याप्त और पार होने के लिये रास्ता न मिले, ऐसी एक बहुत बड़ी अटवी (वन) में जा पहुँचे / / ____ जब वे लोग उस निर्जन अटवी में कुछ आगे बढ़े तो किसी स्थान पर उन्होंने इधर-उधर सारयुक्त लोहे से व्याप्त लम्बी-चौड़ी और गहरी एक विशाल लोहे की खान देखी। वहाँ लोहा खब विखरा पड़ा था। उस खान को देखकर हषित, संतुष्ट यावत् विकसितहृदय होकर उन्होंने आपस में एक दूसरे को बुलाया और कहा, यह सलाह की-देवानुप्रियो ! यह लोहा हमारे लिये इष्ट, प्रिय यावत मनोज्ञ है, अतः देवानुप्रियो ! हमें इस लोहे के भार को बांध लेना चाहिए / इस विचार को एक दूसरे ने स्वीकार करके लोहे का भारा बांध लिया। बांधकर उसी अटवी में प्रागे चल दिये। तत्पश्चात् आगे चलते-चलते वे लोग जब उस निर्जन यावत् अटवी में एक स्थान पर पहुँचे तब उन्होंने सीसे से भरी हुई एक विशाल सीसे की खान देखी, यावत् एक दूसरे को बुलाकर कहाहे देवानुप्रियो ! हमें इस सीसे का संग्रह करना यावत् लाभदायक है। थोड़े से सीसे के बदले हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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