Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 236
________________ 194 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र २६६--तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा-भदन्त ! आपने बताया सो ठीक, किन्तु मेरेपितामह की यही ज्ञानरूप संज्ञा-ब्रद्धि थी यावत समवसरण-सिद्धान्त था कि जो जीव है वही शरीर है, जो शरीर है वही जीव है। जीव शरीर से भिन्न नहीं और शरीर जीव से भिन्न नहीं है। तत्पश्चात् (पितामह के काल-कवलित हो जाने के बाद) मेरे पिता की भी ऐसी ही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण था और उनके बाद मेरी भी यही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण है। तो फिर अनेक पुरुषों (पीढ़ियों) एवं कुलपरंपरा से चली आ रही अपनी दृष्टि-मान्यता को कैसे छोड़ दू? विवेचन--लोक परंपराएँ, मान्यताएँ कैसे प्रचलित होती हैं, इसका सूत्र में संकेत है। हम मानवों में जो भी अनुपयोगी और मिथ्या रूढियाँ चालू हैं उनका आधार पूर्वजों का नाम, लोकदिखावा और अहंकार का पोषण है। हम उनके साथ ऐसे जुड़े हैं कि छोड़ने में प्रतिष्ठाहानि और भय अनुभव करते हैं। इस कारण दिनोंदिन हिंसा, झूठ, छल-फरेब, चोरी-जारी बढ़ रही है और नैतिक पतन होने से मानवीय गुणों का कुछ भी मूल्य नहीं रहा है। २६७–तए णं केसी कुमारसमणे पएसिरायं एवं वयासी-मा णं तुमं पएसो! पच्छाणुताविए भवेज्जासि, जहा व से पुरिसे अयहारए। के णं भंते ! से अयहारए ? पएसी! से जहाणामए केई पुरिसा प्रत्थत्थी, प्रत्थगवेसी, अत्थलुद्धगा, अत्थकंख्यिा , प्रथपिवासिया अस्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडमायाए सुबहुं भत्तपाणपत्थयणं गहाय एगं महं अकामियं (अगामियं) छिन्नावायं दोहमद्ध अवि अणुपविट्ठा। तए णं ते पुरिसा तीसे अकामियाए अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ता समाणा एगमहं प्रयागरं पासंति, अएणं सवतो समंता प्राइण्णं विच्छिण्णं सच्छड उवच्छडं फुडं गाढं पासंति हट्टतु?--जावहियया अन्नमन्नं सदाति एवं क्यासी-एस णं देवाणुप्पिया ! अयभंडे इठे कंते जाव मणामे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं अयभारए बंधित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमट्ठ पडिसुणेति प्रयभारं बंधति, अहाणुपुन्वोए संपत्थिया। तए णं ते पुरिसा प्रकामियाए जाव अडवीए किंचि देसं अणुपत्ता समाणा एगं महं तउप्रागरं पासंति, तउएणं प्राइण्णं तं चेव जाव सद्दावेत्ता एवं वयासी-एस गं देवाणुप्पिया! तउयभंडे जाव मणामे, अप्पेणं चेव तउएणं सुबहुं अए लम्भति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अयभारए छड्डेता तउयभारए बंधित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स अंतिए एयम पडिसुणेति, अयभारं छड्डेंति तउयभारं बंधति / तत्थ णं एगे पुरिसे णो संचाएइ प्रयभारं छड्डेत्तए तउयभारं बंधित्तए / तए णं ते पुरिसा तं पुरिसं एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! तउयभंडे जाव सुबहुं पए लन्भति, तं छड्डेहि णं देवाणुप्पिया ! अयभारगं, तउयभारगं बंधाहि / तए से पुरिसे एवं वयासी-दूराहडे मे देवाणुप्पिया ! अए, चिराहडे मे देवाणुप्पिया! अए, प्रहगाढबंधणबद्ध मे देवाणुप्पिया! अए, असिढिलबंधणबद्ध देवाणुप्पिया ! प्रए. धणियबंधणबद्ध देवाणुपिया! अए, गो संचाएमि अयभारगं छड्डेता तउयमारगं बंधित्तए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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