Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 233
________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन] [191 प्रदेशी-हां, देख रहा हूँ। केशी कुमारश्रमण--तो प्रदेशी! क्या तुम यह भी जानते हो कि इन तृण-वनस्पतियों को कोई देव हिला रहा है अथवा असुर हिला रहा है अथवा कोई नाग, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गंधर्व हिला रहा है ? __ प्रदेशी-हां, भदन्त ! जानता हूँ। इनको न कोई देव हिला-डुला रहा है, यावत् न गंधर्व हिला रहा है / ये वायु से हिल-डुल रही हैं / कुमारश्रमण केशी–हे प्रदेशी ! क्या तुम उस मूर्त, काम, राग, मोह, वेद, लेश्या और शरीरधारी वायु के रूप को देखते हो ? प्रदेशी—यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् भदन्त ! मैं उसे नहीं देखता हूँ। केशी कुमारश्रमण-जब राजन् ! तुम इस रूपधारी (मूर्त) यावत् सशरीर वायु के रूप को भी नहीं देख सकते तो हे प्रदेशी ! इन्द्रियातीत ऐसे अमूर्त जीव को हाथ में रखे आंवले की तरह कैसे देख सकते हो? क्योंकि प्रदेशी ! छद्मस्थ (अल्पज्ञ) मनुष्य (जीव) इस दस वस्तुओं को उनके सर्व भावों-पर्यायों सहित जानते-देखते नहीं हैं / यथा (उनके नाम इस प्रकार हैं-) 1. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. प्राकाशास्तिकाय, 4. अशरीरी (शरीर रहित) जीव, 5. परमाणु पुद्गल, 6. शब्द, 7. गंध, 8. वायु, 6. यह जिन (कर्म-क्षय करने वाला) होगा अथवा जिन नहीं होगा और 10. यह समस्त दुःखों का अन्त करेगा या नहीं करेगा। किन्तु उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक (केवलज्ञानी, केवलदर्शी, सर्वज्ञ सर्वदर्शी) अर्हन्त, जिन, केवली इन दस बातों को उनकी समस्त पर्यायों सहित जानते-देखते हैं, यथा-धर्मास्तिकाय यावत् सर्व दु:खों का अन्त करेगा या नहीं करेगा। इसलिये प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर एक नहीं हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में वायुकायिक जीवों के उल्लेख द्वारा संसारी जीवों का स्वरूप बताया है कि सभी संसारी जीव सूक्ष्म और बादर इन दो प्रकारों में से किसी-न-किसी एक प्रकार वाले हैं / इन प्रकारों के होने के कारण सूक्ष्म नाम और बादर नाम कर्म हैं / सूक्ष्म नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर इन्द्रियग्राह्य नहीं हो पाता है और बादर नामकर्म के उदय से शरीर में ऐसा बादर परिणाम उत्पन्न होता है कि जिससे वे इन्द्रियग्राह्य हो सकते हैं। सूक्ष्म और बादर नामकर्म का उदय तिर्यंचगति के जीवों में होता है और इनके एक पहली स्पर्शनेन्द्रिय होती है। सभी संसारी जीव नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव, इन चार गतियों में से किसी-न-किसी गति वाले हैं और स्वाभाविक चैतन्य गुण के साथ गतियों के अनुरूप प्राप्त इन्द्रियों, शरीर, वेद एवं रागद्वेष, मोह आदि वैभाविक भावों तथा लेश्या परिणाम वाले होते हैं। वायूकाय के जीवों की गति तिर्यंच है और उनके एक स्पर्शनेन्द्रिय, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या, नपुंसक वेद और औदारिक, वैक्रिय, तेजस, कार्मण शरीर होते हैं / २६५–तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं क्यासीसे नणं भंते ! हस्थिरस कुथुस्स य समे चेव जीवे ? हंता पएसी ! हथिस्स य कुथुस्स य समे चेव जीवे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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