Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 230
________________ 188] [ राजप्रश्नीयसूत्र हता ! जाणामि / जे णं खत्तियपरिसाए अवरज्झइ से णं हत्थच्छिण्णए वा, पायच्छिण्णए वा, सीसच्छिण्णए वा, सूलाइए वा एगाहच्चे कूडाहच्चे जीवियाओ क्वरोविज्जइ / जे णं गाहावइपरिसाए अवरज्झइ से णं तएण वा, वेढेण वा, पलालेण वा, वेढित्ता अगणिकाएणं झामिज्जइ। __ जे णं माहणपरिसाए अवरज्झइ से णं अणिढाहिं अकंताहिं जाव अमणामाहिं वागूहि उवालंभित्ता कुडियालंछणए वा सूणगलंछणए वा कोरइ, निधिसए वा प्राणविज्जइ / जे णं इसिपरिसाए अवरज्झइ से णं णाइअणिवाहिं जाव गाइग्रमणामाहि वहि उवालगभइ। एवं च ताव पएसो! तुमं जाणासि तहा वि गं तुम ममं वामं वामेणं, दंडं दंडेणं, पडिकूलं पडिकलेणं, पडिलोमं पडिलोमेणं, विविच्चासं विविच्चासेणं वट्टसि / २६१–प्रदेशी राजा के इस उपालंभ को सुनने के पश्चात् केशी कुमाणश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा हे प्रदेशी ! जानते हो कि कितनी परिषदायें कही गई हैं ? प्रदेशी-जी हाँ जानता हूँ चार परिषदायें कही हैं-१. क्षत्रिय परिषदा, 2. गाथापतिपरिषदा, 3. ब्राह्मणपरिषदा और 4. ऋषिपरिषदा / के शी कुमारश्रमण---प्रदेशी ! तुम यह भी जानते हो कि इन चार परिषदानों के अपराधियों के लिये क्या दंडनीति बताई गई है ? प्रदेशी-हाँ जानता हूँ / जो क्षत्रिय-परिषद् का अपराध-अपमान करता है, उसके या तो हाथ काट दिये जाते हैं अथवा पैर काट दिये जाते हैं या शिर काट दिया जाता है, अथवा उसे शूली पर चढ़ा देते हैं या एक ही प्रहार से या कुचलकर प्राणरहित कर दिया जाता है-मार दिया जाता है / जो गाथापति-परिषद् का अपराध करता है, उसे घास से अथवा पेड़ के पत्तों से अथवा पलाल-पुआल से लपेट कर अग्नि में झोंक दिया जाता है / ___ जो ब्राह्मणपरिषद् का अपराध करता है, उसे अनिष्ट, रोषपूर्ण, अप्रिय या अमणाम शब्दों से उपालंभ देकर अग्नितप्त लोहे से कुडिका चिह्न अथवा कुत्ते के चिह्न से लांछित-चिह्नित कर दिया जाता है अथवा निर्वासित कर दिया जाता है, अर्थात् देश से निकल जाने की आज्ञा दी जाती है। जो ऋषिपरिषद् का अपमान-अपराध करता है, उसे न अति अनिष्ट यावत न अति अमनोज्ञ शब्दों द्वारा उपालंभ दिया जाता है। केशी कुमारश्रमण- इस प्रकार की दंडनीति को जानते हुए भी हे प्रदेशी ! तुम मेरे प्रति विपरीत, परितापजनक, प्रतिकूल, विरुद्ध सर्वथा विपरीत व्यवहार कर रहे हो ! २६२–तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिाह पढमिल्लुएणं चेव वागरण संलते, तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए जाव संकप्पे समुपज्जित्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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