Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 228
________________ 186] [ राजप्रश्नीयसूत्र प्रविष्ट होने के पश्चात् उन पुरुषों ने दुर्गम वन के किसी प्रदेश में पहुंचने पर अपने एक साथी से कहा-देवानप्रिय ! हम इस लकड़ियों के जंगल में जाते हैं। तम यहाँ अंगीठी से प्राग लेकर हमारे लिये भोजन तैयार करना / यदि अंगीठी में आग बुझ जाये तो तुम इस लकड़ी से आग पैदा करके हमारे लिए भोजन बना लेना / इस प्रकार कहकर वे सब उस काष्ठ-वन में प्रविष्ट हो गए। उनके चले जाने पर कुछ समय पश्चात् उस पुरुष ने विचार किया-चलो उन लोगों के लिए जल्दी से भोजन बना लू। ऐसा विचार कर वह जहाँ अंगीठी रखी थी, वहाँ आया। आकर अंगीठी में आग को बुझा हुआ देखा / तब वह पुरुष वहाँ पहुँचा जहाँ वह काष्ठ पड़ा हुआ था। वहाँ पहुँचकर चारों ओर से उसने काष्ठ को अच्छी तरह देखा, किन्तु कहीं भी उसे आग दिखाई नहीं दी / तब उस पुरुष ने कमर कसी और कुल्हाड़ी लेकर उस काष्ठ के दो टुकड़े कर दिये। फिर उन टुकड़ों को भी सभी ओर से अच्छी तरह देखा, किन्तु कहीं आग दिखाई नहीं दी। इसी प्रकार फिर तीन, चार, पाँच यावत् संख्यात टुकड़े किये परन्तु देखने पर भी उनमें कहीं आग दिखाई नहीं दी। __इसके बाद जब उस पुरुष को काष्ठ के दो से लेकर संख्यात टुकड़े करने पर भी कहीं आग दिखाई नहीं दी तो वह श्रान्त, क्लान्त, खिन्न और दुःखित हो, कुल्हाड़ी को एक ओर रख और कमर को खोलकर मन-ही-मन इस प्रकार बोला-अरे ! मैं उन लोगों के लिए भोजन नहीं बना सका / अब क्या करूं। इस विचार से अत्यन्त निराश, दुःखी, चिन्तित, शोकातुर हो हथेली पर मुंह को टिकाकर प्रार्तध्यानपूर्वक नीचे जमीन में आँखें गड़ाकर चिंता में डूब गया। लकड़ियों को काटने के पश्चात् वे लोग वहाँ आये जहाँ अपना साथी था और उसको निराश, दुःखी यावत् चिन्ताग्रस्त देखकर उससे पूछा-देवानुप्रिय ! तुम क्यों निराश, दुःखी यावत् चिन्ता में डूबे हुए हो? तब उस पुरुष ने बताया कि देवानुप्रियो ! आप लोगों ने लकड़ी काटने के लिए वन में प्रविष्ट होने से पहले मुझसे कहा था-देवानुप्रिय ! हम लोग लकड़ी लाने जंगल में जाते हैं, इत्यादि यावत् जंगल में चले गये / कुछ समय बाद मैंने विचार किया कि आप लोगों के लिए भोजन बना लू। ऐसा विचार कर जहाँ अंगीठी थी, वहाँ पहुँचा यावत् (वहाँ जाकर मैंने देखा कि अंगीठी में आग बुझी हुई है। फिर मैं काष्ठ के पास आया। मैंने अच्छी तरह सभी ओर से उस काष्ठ को देखा किन्तु कहीं भी मुझे प्राग दिखाई नहीं दी / तब मैंने कुल्हाड़ी लेकर उस काष्ठ के दो टुकड़े किये और उन्हें भी इधर-उधर से अच्छी तरह देखा / परन्तु वहाँ भी मुझे प्राग दिखाई नहीं दी। इसके बाद मैंने उसके तीन, चार यावत् संख्यात टुकड़े किये / उनको भी अच्छी तरह देखा, परन्तु उनमें भी कहीं आग दिखलाई नहीं दी। तब श्रान्त, क्लान्त, खिन्न और दु:खित होकर कुल्हाड़ी को एक ओर रखकर विचार किया कि मैं आप लोगों के लिए भोजन नहीं बना सका। इस विचार से मैं अत्यन्त निराश, दुःखी हो शोक और चिन्ता रूपी समुद्र में डूबकर हथेली पर मुंह को टिकाये) पातध्यान कर रहा हूँ। . उन मनुष्यों में कोई एक छेक-अवसर को जानने वाला, दक्ष-चतुर, प्राप्तार्थ-कुशलता से अपने अभीप्सित अर्थ को प्राप्त करने वाला यावत् (बुद्धिमान्, कुशल, विनीत, विशिष्टज्ञानसंपन्न), उपदेश लब्ध-गुरु से उपदेश प्राप्त पुरुष था। उस पुरुष ने अपने दूसरे साथी लोगों से इस प्रकार कहा--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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