________________ 184] [राजप्रश्नीयसूत्र नानात्व यावत् लघुत्व नहीं है। इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु जीव-शरीर एक नहीं हैं। २५८–तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी-- अस्थि णं भंते ! एसा जाव' नो उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! अहं अन्नया जाव चोरं उवणेति / तए णं अहं तं पुरिसं सव्वतो समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि, तए णं अहं तं पुरिसं दुहा फालियं करेमि, करित्ता सव्वतो समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि, एवं तिहा चउहा संखेज्जफालियं करेमि, णो चेव णं तत्थ जीवं पासामि / जइ णं भंते ! अहं तं पुरिसं दुहा वा, तिहा वा, चउहा वा, संखेज्जहा वा फालियंमि वा जीवं पासंतो तो णं अहं सद्दहेज्जा नो तं चेव, जम्हा गं भंते ! अहं तंसि दुहा वा तिहा वा चउहा वा संखिज्जहा वा फालियंमि वा जीवं न पासामि तम्हा सुपतिट्टिया मे पइण्णा जहा-तं जीवो तं सरीरं तं चेव / २५८--केशी कुमारश्रमण की उक्त बात को सुनने के पश्चात् प्रदेशी राजा ने पुन: केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ! आपकी यह उपमा बुद्धिप्रेरित होने से वास्तविक नहीं है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि जीव और शरीर पृथक्-पृथक् हैं। क्योंकि भदन्त ! बात यह है कि किसी समय मैं अपने गणनायकों आदि के साथ बाह्य उपस्थानशाला में बैठा था। यावत् नगररक्षक एक चोर को पकड़ कर लाये / तब मैंने उस पुरुष को सभी अोर से (सिर से पैर तक) अच्छी तरह देखा-भाला, परन्तु उसमें मुझे कहीं भी जीव दिखाई नहीं दिया। इसके बाद मैंने उस पुरुष के दो टुकड़े कर दिये। टुकड़े करके फिर मैंने अच्छी तरह सभी ओर से देखा। तब भी मुझे जीव नहीं दिखा। इसके बाद मैंने उसके तीन, चार यावत् संख्यात टुकड़े किये, परन्तु उनमें भी मुझे कहीं पर जीव दिखाई नहीं दिया। यदि भदन्त ! मुझे उस पुरुष के दो, तीन, चार अथवा संख्यात टुकड़े करने पर भी कहीं जीव दिखता तो मैं यह श्रद्धा-विश्वास कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं हैं। लेकिन हे भदन्त ! जब मैंने उस पुरुष के दो, तीन, चार अथवा संख्यात टुकड़ों में भी जीव नहीं देखा है तो मेरी यह धारणा कि जीव शरीर है और शरीर जीव है, जीव-शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं, सुसंगत-सुस्थिर है। २५६–तए णं केसिकुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासीमूढतराए णं तुमं पएसी ! तानो तुच्छतरायो / के णं भंते ! तुच्छतराए ? पएसी ! से जहाणामए केइ पुरिसे वणत्थी वणोवजीवो वणगवेसणयाए जोइं च जोइभायणं च गहाय कटाणं अडवि अणुपविट्ठा, तए णं ते पुरिसा तीसे अगामियाए जाव किचिदेसं अणुप्पत्ता समाणा एगं पुरिसं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया! कट्ठाणं अडवि पविसामो, एत्तो गं तुमं जोइभायणाश्रो जोइं गहाय अम्हं असणं साहेज्जासि / अह तं जोइभायणे जोई विझवेज्जा एत्तो णं तुम कट्टायो जोई गहाय अम्हं असणं साहेज्जासि, ति कटु कट्ठाणं अडवि अणुपविट्ठा। 1. देखें सूत्र संख्या 254 2. देखें सूत्र संख्या 248 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org