________________ 182] [राजप्रश्नीयसूत्र पएसी ! से चेव से पुरिसे जुन्ने जाव' किलते जुत्तोवगरणे नो पभू एग महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसो ! जहा-अन्नो जीवो अन्नं सरोरं / २५५--प्रदेशी राजा की इस बात को सुनकर केशी कुमारश्रमण ने राजा प्रदेशी से कहा-- जैसे कोई एक तरुण यावत् कार्यनिपुण पुरुष नवीन कावड़ से, रस्सी से बने नवीन सीके से और नवीन टोकनी से एक बहुत बड़े, वजनदार लोहे के भार को यावत् (रांगे और सीसे के भार को) वहन करने में (उठाने, ढोने में) समर्थ है या नहीं है ? प्रदेशी–हाँ समर्थ है। केशी कुमारश्रमण-अब मैं पुन: तुम से पूछता हूँ कि हे प्रदेशी ! वही तरुण यावत् कार्यकुशल पुरुष क्या सड़ी-गली, पुरानी, कमजोर, घुन से खाई हुई कावड़ से, जीर्ण-शीर्ण, दुर्बल, दीमक के खाये एवं ढोले-ढाले सोंके से. और पुराने, कमजोर और दीमक लगे टोकने से एक बड़े वजनदार लोहे के भार आदि को ले जाने में समर्थ है ? प्रदेशी-हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् जीर्ण-शीर्ष कावड़ आदि से भार ले जाने में समर्थ नहीं है। केशी कुमारश्रमण-क्यों समर्थ नहीं है ? प्रदेशी-क्योंकि भदन्त ! उस पुरुष के पास भारवहन करने के उपकरण–साधन जीर्णशीर्ण हैं। केशी कुमारश्रमण तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह पुरुष जीर्ण यावत् क्लान्त शरीर प्रादि उपकरणों वाला होने से एक भारी वजनदार लोहे के भार को यावत् (सीसे के भार को, रांगे के भार को) वहन करने में समर्थ नहीं है। इसीलिए प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं / २५६-तए णं से पएसी केसिकुमारसमणं एवं क्यासी-- अस्थि णं भंते ! जाव (एस पण्णा उवमा इमेण पुण कारणणं) नो उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! जाव' विहरामि / तए णं मम जगरगुत्तिया चोरं उवणेति / तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतगं चेव तुलेमि, तुलेत्ता छविच्छेयं अकुश्वमाणे जीवियाओ ववरोवेमि, मयं तुलेमि, णो चेव णं तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स वा मुयस्स वा तुलियस्स केइ प्राणते वा, नाणत्ते वा, ओमत्ते वा, तुच्छत्ते वा, गुरुयत्ते वा, लहुयत्ते वा, जति णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स केइ अन्नत्ते वा जाब लहुयत्ते वा तो णं अहं सद्दहेज्जा तं चेव / जम्हा णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जोवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स नस्थि केइ अन्नत्ते वा लहुयत्ते वा तम्हा सुपतिविया मे पइन्ना जहा-तं जोवो तं चेव / २५६-इसके बाद उस प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से ऐसा कहा-हे भदन्त ! आपकी यह उपमा वास्तविक नहीं है, इससे जीव और शरीर को भिन्नता नहीं मानी जा सकती 1. देखे सूत्र संख्या 254 2. देखें सूत्र संख्या 248 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org