________________ 180 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र २५३-तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासो--- से जहानामए केह पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवएणं धणुणा नवियाए जीवाए नवएणं इसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए? हंता, पमू। सो चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगते कोरिल्लिएणं धणुणा कोरिल्लियाए जीवाए कोरिल्लिएणं इसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए ? जो तिणमठे समठे। कम्हा ? भंते ! तस्स पुरिसस्स अपज्जत्ताई उवगरणाई हवंति / एवामेव पएसी ! सो चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे अपज्जत्तोवगरणे, णो पभू पंचकंडयं निसिरित्तए, तं सदहाहि गं तुमं पएसी! जहा अन्नो जीवो तं चेव / २५३-राजा प्रदेशी के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहाजैसे कोई एक तरुण यावत् कार्य करने में निपुण पुरुष नवीन धनुष, नई प्रत्यंचा (डोरी) और नवीन बाण से क्या एक साथ पाँच वाण निकालने में समर्थ है अथवा नहीं है ? प्रदेशी-हाँ समर्थ है। केशी कुमारश्रमण-लेकिन वही तरुण यावत् कार्य-कुशल पुरुष जीर्ण-शीर्ण, पुराने धनुष, जीर्ण प्रत्यंचा और वैसे ही जीर्ण बाण से क्या एक साथ पाँच वाणों को छोड़ने में समर्थ हो सकता है ? प्रदेशी-भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् पुराने धनुष आदि से वह एक साथ पांच वाण छोड़ने में समर्थ नहीं होगा। केशी कुमारश्रमण-क्या कारण है कि जिससे यह अर्थ समर्थ नहीं है ? प्रदेशी-भदन्त ! उस पुरुष के पास उपकरण (साधन) अपर्याप्त हैं / केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह बाल यावत् मंदविज्ञान पुरुष योग्यता रूप उपकरण की अपर्याप्तता के कारण एक साथ पांच वाणों को छोड़ने में समर्थ नहीं हो पाता है। अतः प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा-प्रतीति करो कि जीव और शरीर पृथक्-पृथक हैं, जीव शरीर नहीं और शरीर जीव नहीं है। २५४--तए णं पएसी राया केसीकुमारसमणं एवं क्यासी-- अस्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेण पुण कारणेणं नो उवागच्छइ, भंते ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगते पभू एगं महं अयभारगं वा तउयभारगं वा सीसगभारगं या परिवहितए ? हंता पभू। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org