________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [ 179 प्रदेशी–हाँ भदन्त ! हो जाता है। ___ केशी कुमारश्रमण--हे प्रदेशी ! उस लोहे में कोई छिद्र आदि है क्या, जिससे वह अग्नि बाहर से उसके भीतर प्रविष्ट हो गई ? प्रदेशी-भदन्त ! यह अर्थ तो समर्थ नहीं है / अर्थात् उस लोहे में कोई छिद्र आदि नहीं होता। केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जीव भी अप्रतिहत गति वाला है, जिससे वह पृथ्वी, शिला आदि का भेदन करके बाहर से भीतर प्रविष्ट हो जाता है / इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम इस बात की श्रद्धा-प्रतीति करो कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है। विवेचन-केशी कूमारश्रमण के कथन का यह आशय है कि ये जीव दूसरी गति से च्यवन कर इस मृत शरीर में आकर उत्पन्न हुए हैं / २५२–तए णं पएसी राया केसीकुमारसमणं एवं वयासी अस्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छई, अस्थि णं भंते ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए पभू पंचकंडगं निसिरित्तए ? हंता, पभू / जति णं भंते ! सो च्चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे पभू होज्जा पंचकंडगं निसिरित्तए, तो णं अहं सद्दहेज्जा जहा-अन्नो जीवो तं चेव, जम्हा णं भंते ! स चेव से पुरिसे जाव मंदविन्माणे णो पभू पंचकंडगं निसिरित्तए, तम्हा सुपइट्ठिया मे पइण्णा जहा-तं जीवो तं चेव / / .२५२–पूर्वोक्त युक्ति को सुनकर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा--बुद्धि-विशेषजन्य होने से आपकी उपमा वास्तविक नहीं है। किन्तु जो कारण मैं बता रहा हूँ, उससे जीव और शरीर को भिन्नता सिद्ध नहीं होती है / वह कारण इस प्रकार है हे भदन्त ! जैसे कोई एक तरुण यावत् (युगवान, बलशाली, निरोग, स्थिर संहनन वाला, सुदृढ़ पहुँचा वाला, हाथ-पैर-पोठ-जंघाओं आदि से संपन्न, सघन-सुदृढ गोल-गोल कंधे वाला, चमड़े के पट्टों, मुष्टिकाओं आदि के प्रहारों से सुगठित शरीर वाला, हृदय बल से संपन्न, सहोत्पन्न ताल वृक्ष के समान बाहु-युगल वाला, लांघने-कूदने-चलने में समर्थ, चतुर, दक्ष, कुशल, बुद्धिमान्) और अपना कार्य सिद्ध करने में निपुण पुरुष क्या एक साथ पांच वाणों को निकालने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमण-हाँ वह समर्थ है / प्रदेशी-लेकिन वही पुरुष यदि बाल यावत् मंदविज्ञान वाला होते हुए भी पांच वाणों को एक साथ निकालने में समर्थ होता तो हे भदन्त ! मैं यह श्रद्धा कर सकता था कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीर नहीं है। लेकिन वही बाल, मंदविज्ञान वाला पुरुष पांच वाणों को एक साथ निकालने में समर्थ नहीं है, इसलिये भदन्त ! मेरी यह धारणा कि जीव और शरीर एक हैं, जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है, सुप्रतिष्ठित--प्रामाणिक, सुसंगत है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org