________________ 158] [राजप्रश्नीयसूत्र चित्त सारथी ने उस रथ को अनेक योजनों अर्थात् बहुत दूर तक बड़ी तेज चाल से दौड़ायाचलाया / तब गरमी, प्यास और रथ की चाल से लगती हवा से व्याकुल-परेशान-खिन्न होकर प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा- हे चित्त! मेरा शरीर थक गया है। रथ को वापस लौटा लो। तब चित्त सारथी ने रथ को लौटाया और वहाँ आया जहाँ मृगवन उद्यान था। वहाँ आकर प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा--हे स्वामिन् ! यह मृगवन उद्यान है, यहाँ रथ को रोक कर हम घोडों के श्रम और अपनी थकावट को अच्छी तरह से दर कर लें। ___ इस पर प्रदेशी राजा ने कहा-हे चित्त ! ठीक, ऐसा ही करो। केशी कुमारश्रमरण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन २३७--तए णं से चित्ते सारही जेणेव मियवणे उज्जाणे, जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हेइ, रहं ठवेइ, रहामो पच्चोरहइ, तुरए मोएति, पएसि रायं एवं वयासी-एह णं सामी ! आसाणं समं किलामं सम्मं प्रवणेमो। तए णं से पएसी राया रहाम्रो पच्चोरूहाइ, चित्तण सारहिणा सद्धि प्रासाणं समं किलाम वणेमाणे पासइ जत्थ केसीकमारसमणं महइमहालियाए महच्चरिसाए मझगए महया सद्देणं धम्ममाइक्खमाणं, पासइत्ता इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था जड्डा खलु भो ! जड्डं पज्जुवासंति, मुंडा खलु भो ! मुड पज्जुवासंति, मूढा खलु भो ! मूढं पज्जुवासंति, अपडिया खलु भो ! अपंडियं पज्जुवासंति, निविण्णाणा खलु भो ! निविष्णाणं पज्जुवासंति / से केस णं एस पुरिसे जड्डे मुंडे मूढे अपंडिए निविण्णाणे, सिरोए हिरीए उवगए उत्तप्पसरीरे / एस णं पुरिसे किमाहारमाहारेइ ? कि परिणामेइ ? कि खाइ, कि पियइ, कि दलइ, किं पयच्छइ, जंणं एस एमहालियाए मणुस्सपरिसाए मझगए महया सद्देणं बूयाए ? एवं संपेहेइ चित्तं सारहिं एवं वयासी चित्ता ! जड्डा खलु भो! जड्डं पज्जुवासंति जाव बूयाए, साए वि णं उज्जाणभूमीए नो संचाएमि सम्म पकामं पवियरित्तए ! २३७-राजा के 'हाँ' कहने पर चित्त सारथी ने मृगवन उद्यान की ओर रथ को मोड़ा और फिर उस स्थान पर आया जो केशी कुमारश्रमण के निवासस्थान के पास था। वहाँ घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया, रथ से उतरा और फिर घोड़ों को खोलकर छोड़कर प्रदेशी राजा से कहाहे स्वामिन् ! हम यहाँ घोड़ों के श्रम और अपनी थकावट को दूर कर लें। यह सुनकर प्रदेशी राजा रथ से नीचे उतरा, और चित्त सारथी के साथ घोड़ों की थकावट और अपनी व्याकुलता को मिटाते हुए उस ओर देखा जहाँ केशी कुमारश्रमण अतिविशाल परिषद् के बीच बैठकर उच्च ध्वनि से धर्मोपदेश कर रहे थे। यह देखकर उसे मन-ही-मन यह विचार एवं संकल्प उत्पन्न हुमा जड़ ही जड़ को पर्युपासना करते हैं ! मुड ही मुड की उपासना करते हैं ! मूढ़ ही मूढ़ों की उपसना करते हैं ! अपंडित ही अपंडित की उपासना करते हैं ! और अज्ञानी ही अज्ञानी की उपासना-संमान करते हैं ! परन्तु यह कौन पुरुष है जो जड़, मुड, मूढ, अपंडित और अज्ञानी होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org