Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 214
________________ 172 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र २४६-केशी कुमारश्रमण के पूर्वोक्त कथन को सुनने के पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण के समक्ष नया तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा- हे भदन्त ! मेरी आजी-दादी थीं। वह इसी सेयविया नगरी में धर्मपरायण यावत् धार्मिक प्राचार-विचारपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करनेवाली, जीव-अजीव आदि तत्त्वों की ज्ञाता श्रमणोपासिक यावत् तप से आत्मा को भावित करती हुई अपना समय व्यतीत करती थीं इत्यादि समस्त वर्णन यहाँ समझ लेना चाहिये और आपके कथनानुसार वे पुण्य का उपार्जन कर कालमास में काल करके किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुई हैं। उन आयिका (दादी) का मैं इष्ट, कान्त यावत दुर्लभदर्शन पौत्र हैं। अतएव वे आयिका यदि यहाँ पाकर मुझसे इस प्रकार कहें कि-हे पौत्र ! मैं तुम्हारी दादी थी और इसी सेयविया नगरी में धार्मिक जीवन व्यतीत करती हई श्रमणोपासिका हो यावत अपना समय बिताती थी। इस कारण मैं विपूल पुण्य का संचय करके यावत् देवलोक में उत्पन्न हुई हूँ। हे पौत्र ! तुम भी धार्मिक आचार-विचारपूर्वक अपना जीवन बिताओ। जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन करके यावत् (मरणसमय में मरण करके किसी एक देवलोक में देवरूप से) उत्पन्न होप्रोगे। ___इस प्रकार से यदि मेरी दादी प्राकर मुझसे कहें कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है किन्तु वही जीव वही शरीर नहीं अर्थात् जीव और शरीर एक नहीं हैं, तो हे भदन्त ! मैं आपके कथन पर विश्वास कर स सकता है, प्रतीति कर सकता है और अपनी रुचि का विषय बना सकता है। परन्तु जब तक मेरी दादी नाकर मुझसे ऐसा नहीं कहती तब तक मेरी यह धारणा सुप्रतिष्ठित एवं समीचीन है कि जो जीव है वही शरीर है / किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। विवेचन-यहाँ राजा प्रदेशी ने अपनी धार्मिक दादी का उदाहरण देकर जो व्यक्त किया, उसे दीघनिकाय में राजा पायासि ने अपने धर्मपरायण मित्रों के उदाहरण द्वारा बताया है कि आप अपनी धर्मवृत्ति के कारण स्वर्ग जाने वाले हैं और ऐसा हो तो आप मुझे यह समाचार अवश्य देना। २४७–तए णं केसी कुमारसमणे पएसोरायं एवं क्यासी-जति गं तुमं पएसी! व्हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं उल्लपडसाडगं भिगारकडुच्छयहत्थगयं देवकुलमणुपविसमाणं केइ य पुरिसे बच्चघरंसि ठिच्चा एवं ववेज्जा-एह ताव सामी ! इह मुहुत्तमं आसयह वा, चिट्ठह वा, निसीयह वा, तुयट्टह वा, तस्स णं तुमं पएसी! पुरिसस्स खणमवि एयमटुं पडिसुणिज्जासि ? णो तिणठे समठे। कम्हा गं? भंते ! असुई असुइ सामंतो। एवामेव पएसी ! तव वि अज्जिया होत्या, इहेव सेयवियाए पयरीए धम्मिया जाव विहरति, सा णं प्रम्हं वत्तवाए सुबहुं जाव उववन्ना, तोसे गं अज्जियाए तुम णत्तुए होत्था इठे० किमंग पुण पासणयाए ? सा णं इच्छइ माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए / चहि ठाणेहि पएसो! अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु इच्छेज्जा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ 1. अहुणोचवण्णे देवे देवलोएसु दिन्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए-गिद्ध-गढिए-अज्झोववण्णे से णं माणसे भोगे नो पाढाति, नो परिजाणाति, से णं इच्छिज्ज माणसं० नो चेव णं संचाएति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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