________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [173 2. अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु दिन्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए जाव प्रजभोक्वण्णे, तस्स णं माणुस्से पेम्मे वोच्छिन्नए भवति, दिव्वे पिम्में संकते भवति, से णं इच्छेज्जा माणुसं० णो चेव णं संचाएइ। 3. अहुणोववण्णे देवे दिव्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए जाव अज्झोववणे, तस्स णं एवं भवइइयाणि गच्छं मुहत्तं जाव इह गच्छं, अप्पाउया गरा कालधम्मुणा संजुसा भवंति, से गं इच्छेज्जा माणुस्सं० को चेव णं संचाएइ / 4. अहुणोववण्णे देवे दिवेहि जाव अज्झो ववष्णे, तस्स माणुस्सए उराले दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे भवइ, उड्ढं पि य णं चत्तारि पंच जोअणसए असुभे माणुस्सए गंधे अभिसमागच्छति, से गं इच्छेज्जा माणुसं० णो चेव णं संचाइज्जा। इच्चेएहि ठाणेहि पएसी ! प्रहुणोंबवणे देवे देवलोएसु इच्छेज्ज माणुसं लोग हन्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हव्वमाच्छित्तए, तं सद्दहाहि गं तुमं पएसी! जहा–प्रन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरोरं। २४७–प्रदेशी राजा का उक्त तर्क सुनकर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार पूछा-हे प्रदेशी ! यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त करके गीली धोती पहन, झारी और धूपदान हाथ में लेकर देवकुल में प्रविष्ट हो रहे होमो और उस समय कोई पुरुष विष्ठागृह (शौचालय) में खड़े होकर यह कहे कि-हे स्वामिन् ! आओ और क्षणमात्र के लिये यहाँ बैठो, खड़े होप्रो और लेटो, तो क्या हे प्रदेशी ! एक क्षण के लिये भी तुम उस पुरुष की यह बात स्वीकार कर लोगे? प्रदेशी-- हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् उस पुरुष की बात स्वीकार नहीं करूंगा। कुमारश्रमण केशीस्वामी-उस पुरुष की बात क्यों स्वीकार नहीं करोगे ? प्रदेशी-क्योंकि भदन्त ! वह स्थान अपवित्र है और अपवित्र वस्तुओं से भरा हुग्राव्याप्त है। केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार प्रदेशी ! इसी सेयविया नगरी में तुम्हारी जो दादी धार्मिक यावत् धर्मानुरागपूर्वक जीवन व्यतीत करती थीं और हमारी मान्यतानुसार वे बहुत से पुण्य का संचय करके यावत् देवलोक में उत्पन्न हुई हैं तथा उन्हीं दादी के तुम इष्ट यावत् दुर्लभदर्शन जैसे पौत्र हो / वे तुम्हारी दादी भी शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की अभिलाषी हैं किन्तु पा नहीं सकती। हे प्रदेशी ! अधुनोत्पन्न देव देवलोक से मनुष्यलोक में आने के आकांक्षी होते हुए भी इन चार कारणों से आ नहीं पाते हैं 1. तत्काल उत्पन्न देव देवलोक के दिव्य कामभोगों में मूच्छित, गृद्ध, अासक्त और तल्लीन हो जाने में मानवीय भोगों के प्रति आकर्षित नहीं होते हैं, न ध्यान देते हैं और न उनकी इच्छा करते हैं / जिससे वे मनुष्यलोक में आने की आकांक्षा रखते हुए भी आने में समर्थ नहीं हो पाते हैं / 2. देवलोक संबंधी दिव्य कामभोगों में मूच्छित यावत् तल्लीन हो जाने से अधुनोत्पन्नक देव का मनुष्य संबंधी प्रेम (आकर्षण) व्युच्छिन्न-समाप्त-सा हो जाता है- टूट जाता है और देवलोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org