________________ केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन ] [ 159 हुए भी श्री-ह्रो से संपन्न है, शारीरिक कांति से सुशोभित है ? यह पुरुष किस प्रकार का आहार करता है ? किस रूप में खाये हुए भोजन को परिणमाता है? यह क्या खाता है, क्या पीता है, लोगों को क्या देता है, विशेष रूप से उन्हें क्या वितरित करता है—बांटता है-समझाता है ? यह पुरुष इतने विशाल मानव-समूह के बीच बैठकर जोर-जोर से बोल रहा है ! उसने ऐसा विचार किया और चित्त सारथी से कहा चित्त ! जड़ पुरुष ही जड़ को पर्युपासना करते हैं आदि। यह कौन पुरुष है जो ऊंची ध्वनि से बोल रहा है ? इसके कारण हम अपनो हो उद्यानभूमि में भी इच्छानुसार घूम-फिर नहीं सकते हैं / २३८-तए णं से चित्ते सारही पएसोरायं एवं बयासी-एस गं सामी ! पासाच्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपण्णे जाव' चउनाणोवगए अधोऽवहिए अण्णजीविए / तए णं से पएसी राया चित्तं सारहि एवं वयासी—आहोहियं णं वदासि चित्ता! अण्णजीवियत्तं गं वदासि चित्ता! हंता, सामी ! पाहोहिणं वयामि, अण्णजीवियतं णं वयामि सामी ! अभिगमणिज्जे णं चित्ता! एस रिसे ? हंता ! सामी ! अभिगमणिज्जे / अभिगच्छामो णं चित्ता! अम्हे एवं पुरिसं? हंता सामी ! अभिगच्छामो। २३८--तव चित्त सारथी ने प्रदेशी राजा से कहा-स्वामिन् ! ये पाश्र्वापत्य (भगवान् पार्श्वनाथ की आचार-परम्परा के अनुगामी) केशी नामक कुमारश्रमण हैं, जो जातिसंपन्न यावत् मतिज्ञान आदि चार ज्ञानों के धारक हैं। ये आधोऽवधिज्ञान (परमावधि से कुछ न्यून अवधिज्ञान) से संपन्न एवं (एषणीय) अन्नजीवी हैं। तब आश्चर्यचकित हो प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! यह पुरुष आधोऽवधिज्ञान-संपन्न है और अन्नजोवो है ? चित्त-हाँ स्वामिन् ! ये आधोऽवधिज्ञानसम्पन्न एवं अन्नजीवी हैं / प्रदेशी-हे चित्त ! तो क्या यह पुरुष अभिगमनीय है अर्थात् इस पुरुष के पास जाकर बैठना चाहिये। चित्त-हाँ स्वामिन् ! अभिगमनीय हैं। प्रदेशी-तो फिर, चित्त ! हम इस पुरुष के पास चलें। चित्त-हाँ स्वामिन् ! चलें। २३६-तए णं से पएसी राया चित्तण सारहिणा सद्धि जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामते ठिच्चा एवं वयासो-तुम्भे णं भैते ! पाहोहिया अण्णजीविया ? 1. देखें सूत्र सं. 213 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org