Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 210
________________ 168 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र बहुमए अणुमए रयणकरंडगसमाणे जीविउस्सविए हिययणंदिजणणे उंबरयुप्फ पिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? तं जति णं से अज्जए ममं प्रागंतु वएज्जा एवं खलु नत्तुया ! प्रहं तव प्रज्जए होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तेमि, तए णं अहं सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता नरएसु उववण्णे, तं मा णं नत्तुया! तुम पि भवाहि अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तेहि, मा णं तुमं पि एवं चेव सब पावकम्मं जाव उववन्जिहिसि / तं जहणं से प्रज्जए ममं प्रागंतवएज्जा तो णं अहं सहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, जो तं जीवो तं सरीरं / जम्हा णं से प्रज्जए ममं आगंतु नो एवं वयासो तम्हा सुपइट्ठिया मम यइन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीरं। २४४-तब प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ! यदि आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् सिद्धान्त है कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, किन्तु ऐसी मान्यता नहीं है कि जो जीव है वही शरीर है, तो मेरे पितामह, जो इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप की सेयविया नगरी में प्रधामिक यावत् राजकर लेकर भी अपने जनपद का भली-भांति पालन, रक्षण नहीं करते थे, वे आपके कथनानुसार अत्यन्त कलुषित पापकर्मों को उपाजित करके मरण-समय में मरण करके किसी एक नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुए हैं। उन पितामह का मैं इष्ट, कान्त (अभिलषित), प्रिय, मनोज्ञ, मणाम (अतीव प्रिय), धैर्य और विश्वास का स्थान (आधार, पात्र), कार्य करने में सम्मत (माना हुआ), बहुत कार्य करने में माना हुमा तथा कार्य करने के बाद भी अनुमत, रत्नकरंडक (आभूषणों की पेटी) के समान, जीवन की श्वासोच्छ्वास के समान, हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला, गूलर के फूल के समान जिसका नाम सुनना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की बात ही क्या है, ऐसा पौत्र हूँ / इसलिये यदि मेरे पितामह पाकर मुझ से इस प्रकार कहें कि 'हे पौत्र ! मैं तुम्हारा पितामह था और इसी सेयविया नगरी में अधार्मिक यावत प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप में उनका पालन, रक्षण नहीं करता था। इस कारण मैं बहुत एवं अतीव कलुषित पापकर्मों का संचय करके नरक में उत्पन्न हुआ हूँ। किन्तु हे नाती (पौत्र)! तुम अधार्मिक नहीं होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन, रक्षण में प्रमाद मत करना और न बहुत से मलिन पाप कर्मों का उपार्जन-संचय ही करना। तो मैं आपके कथन पर श्रद्धा कर सकता हूँ, प्रतीति (विश्वास) कर सकता है एवं उसे अपनी रुचि का विषय बना सकता हूँ कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है। जीव और शरीर एक रूप नहीं हैं / लेकिन जब तक मेरे पितामह आकर मुझसे ऐसा नहीं कहते तब तक हे आयुष्मन् श्रमण ! मेरी यह धारणा सुप्रतिष्ठित-समीचीन है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है / विवेचन:-यहाँ राजा पएसी (प्रदेशी) ने अपने दादा का दृष्टान्त देकर जो कथन किया है, उसी बात को दीघनिकाय में राजा पायासि ने अपने मित्रों का उदाहरण देकर कहा है। दीघनिकाय में जिसका उल्लेख इस प्रकार से किया गया है राजा पायासि और कुमार काश्यप के मिलने पर पायासि अपनी शंका काश्यप के समक्ष उपस्थित करता है और काश्यप उसका समाधान करते है कि-राजन्य ! ये सूर्य, चन्द्र क्या हैं ? वे इहलोक हैं या परलोक हैं ? देव हैं या मानव हैं ? अर्थात् इन उदाहरणों के द्वारा काश्यप परलोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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