________________ तज्जीव-तच्छरोरवाद मंडन-खंडन ] [167 तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन २४२-तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं क्यासी--अह णं भंते ! इहं उवविसामि ? पएसी ! एसाए उज्जाणभूमीए तुमंसि चेव जाणए / तए णं से पएसी राया चित्तेणं सारहिणा सद्धि केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसइ, केसिकुमारसमणं एवं वदासी--तुम्भे णं भंते ! समणाणं जिग्गंथाणं एसा सण्णा, एसा पइण्णा, एसा दिट्ठी, एसा रुई, एस हेऊ, एस उवएसे, एस संकप्पे, एसा तुला, एस माणे, एस पमाणे, एस समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जोवो तं सरीरं? २४२--केशीस्वामी के कथन को सुनने के अनन्तर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया-भदन्त ! क्या मैं यहाँ बैठ जाऊं? __केशी-हे प्रदेशी ! यह उद्यानभूमि तुम्हारी अपनी है, अतएव बैठने या न बैठने के विषय में तुम स्वयं समझ लो-निर्णय कर लो।। तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा केशी कुमारश्रमण के समीप बैठ गया और बैठकर केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार पूछा भदन्त ! क्या आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी सम्यग्ज्ञान रूप संज्ञा है, तत्त्वनिश्चय रूप प्रतिज्ञा है, दर्शन रूप दृष्टि है, श्रद्धानुगत अभिप्राय रूप रुचि है, अर्थ का प्रतिपादन करने रूप हेतु है, शिक्षा वचन रूप उपदेश है, तात्त्विक अध्यवसाय रूप संकल्प है, मान्यता है, तुला-समीचीन निश्चयकसौटी है, दृढ़ धारणा है, अविसंवादी दृष्ट एवं इष्ट रूप प्रत्यक्षादि प्रमाणसंगत मंतव्य है और स्वीकृत सिद्धान्त है कि जीव अन्य है और शरीर अत्य है ? अर्थात् जीव और शरीर भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले हैं ? शरीर और जीव दोनों एक नहीं हैं ? २४३-तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं क्यासी–पएसी ! अम्हं समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव' एस समोसरणे, जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं / २४३---प्रदेशी राजा के प्रश्न को सुनकर प्रत्युत्तर में केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-हे प्रदेशी ! हम श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् समोसरण-सिद्धान्त है कि जीव भिन्न-- पृथक् है और शरीर भिन्न है, परन्तु जो जीव है वही शरीर है, ऐसी हमारी धारणा नहीं है / २४४-तए णं से पएसो राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-जति णं भंते ! तुम्भं समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव' समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं, एवं खलु ममं अज्जए होत्या, इहेव जंबूदीवे दीवे सेयवियाए णगरीए अधम्मिए जाव: सगस्स वि य णं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तेति, से णं तुभं वत्तवयाए सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसु णेरइयत्ताए उबवणे / तस्स णं अज्जगस्स णं अहं णत्तुए होत्था इठे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए संमए 1-2. देखें सूत्र संख्या 242 3. देखें सूत्र संख्या 226 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org