Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 207
________________ केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन ] [165 अर्थावग्रह में अभ्यस्तदशा तथा विशिष्ट क्षयोपशम की अपेक्षा है और व्यंजनावग्रह अनभ्यस्तावस्था एवं क्षयोपशम की मंदता में होता है / अर्थावग्रह का काल एक समय है किन्तु व्यंजनावग्रह का असंख्यात समय है। 2. अवग्रह के उत्तर और अवाय से पूर्व सद्भूत अर्थ की पर्यालोचना रूप चेष्टा को ईहा कहते हैं / अथवा अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा अथवा अवग्रह द्वारा गृहीत सामान्य विषय को विशेष रूप से निश्चित करने के लिए होने वाली विचारणा ईहा है / पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा होने से ईहा के तत्तत् नामक छह भेद हैं / 3. ईहा के द्वारा ग्रहण किये अर्थों का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना, अवाय कहलाता है। ईहा की तरह इसके भी छह भेद हैं / 4. निर्णीत अर्थ का धारण करना अथवा कालान्तर में भी उसकी स्मृति हो पाना धारणा है। पांच इन्द्रियों और मन से होने के कारण धारणा के भी छह भेद हैं / अवग्रह आदि चारों में से अवग्रह का काल एक समय, ईहा और अवाय का अन्तर्मुहूर्त तथा धारणा का संख्यात, असंख्यात समय प्रमाण है। पांच इन्द्रियों और मन, इन छह निमित्तों से होने वाले अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के छह-छह भेद हैं तथा मन और चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से होने के कारण व्यंजनावग्रह के चार भेद हैं ! सब मिलाकर ये अट्ठाईस (28) भेद हैं। ये सब पुन: विषय और क्षयोपशम की विविधता से 12-12 प्रकार के हैं। जिससे अवग्रहादि रूप श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के कुल मिलाकर 336 भेद हो जाते हैं। अश्रुतनिश्रित के प्रौत्पत्तिकीबुद्धि आदि चार भेदों को मिलाने से मतिज्ञान के 340 भेद होते हैं। क्षायोपशमिक विविधता के बारह प्रकार ये हैं 1-2. बहु-अल्पग्राही, 3-4. बहुविध-एकविधग्राही, 5-6. क्षिप्र-अक्षिप्रग्राही, 7-6. निश्रित-अनिश्रितग्राही, 6-10. असंदिग्ध-संदिग्धग्राही, 11-12. ध्र व-अध्र वग्राही / श्रुतज्ञान के भेदों का विचार विस्तार और संक्षेप, इन दो दृष्टियों से किया गया है। विस्तार से श्रुतज्ञान के चौदह भेदों के नाम इस प्रकार हैं-- 1-2 अक्षर-अनक्षर श्रुत, 3-4 संज्ञी-असंज्ञी श्रुत, 5-6 सम्यक्-मिथ्या श्रुत, 7-8 सादिअनादि श्रुत, 9-10 सपर्यवसित-अपर्यवसित श्रुत, 11-12 गमिक-अगमिक श्रुत, 13-14 अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य श्रुत / 1-2. अक्षर-अनक्षर श्रुत-क्षर् संचलने धातु से अक्षर शब्द बनता है, 'न क्षरति-न चलति इत्यक्षरम्' अर्थात् जो अपने स्वरूप से चलित नहीं होता, उसे अक्षर कहते हैं / इसीलिये ज्ञान का नाम अक्षर है / इसके संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर, ये तीन भेद हैं। अक्षर की प्राकृति-संस्थान, बनावट को संज्ञाक्षर कहते हैं। उच्चारण किये जाने-बोले जाने वाले अक्षर व्यंजनाक्षर हैं और शब्द को सुनकर अर्थ का अनुभवपूर्वक पर्यालोचन होना लब्धि-अक्षर कहलाता है। अनक्षरश्रुत अनेक प्रकार का है। छींकना, श्वासोच्छ्वास आदि सब अनक्षरश्रुत रूप हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288