Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 208
________________ 166 / [ राजप्रश्नीयसूत्र 3-4. संज्ञि-प्रसंज्ञि श्रुत-संज्ञी और असंज्ञी जीवों के श्रुत को क्रमशः संज्ञि, असंज्ञि श्रुत कहते हैं / कालिकी-उपदेश, हेतु-उपदेश और दृष्टिवाद-उपदेश के भेद से संज्ञिश्रुत तीन प्रकार का है। ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, इस प्रकार के विचार-विमर्श से वस्तु के स्वरूप को अधिगत करने की शक्ति जिसमें है, वह कालिकी-उपदेश से संज्ञी है और जिसमें उक्त ईहा, अपोह आदि रूप शक्ति नहीं, वह असंही है। जिस जीव की विचारपूर्वक क्रिया करने में प्रवृत्ति होती है, वह हेतु-उपदेश की अपेक्षा से संज्ञो है और जिसमें विचारपूर्वक क्रिया करने की शक्ति नहीं, वह असंज्ञी है / दृष्टि दर्शन का नाम है और सम्यग्ज्ञान का नाम संज्ञा है / ऐसी संज्ञा जिसमें हो, उसे दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी कहते हैं, उक्त संज्ञा जिसमें नहीं वह असंज्ञी है। 5.6. सम्यक्-मिथ्या श्रुत-सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भगवन्तों द्वारा प्ररूपित श्रुत सम्यक्श्रुत और मिथ्यादृष्टि स्वच्छन्द बुद्धि वालों के द्वारा कहा गया श्रुत मिथ्याश्रुत कहलाता है। आचारांग आदि दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादशांग रूप तथा सम्पूर्ण दशपूर्वधारी द्वारा कहा गया श्रुत सम्यक्श्रुत है। 7-8-6-10. सादि, सपर्यवसित, अनादि, अपर्यवसित श्रुत-व्यवच्छित्ति—पर्यायाथिक नय की अपेक्षा सादि-सपर्यवसित (सान्त) है और अव्यवच्छित्ति-द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादिअपर्यवसित (अनन्त) है। 11-12. गमिक-अमिक श्रत--जिस श्रत के आदि, मध्य और अवसान में किंचित विशेषता रखते हए पून:-पूनः पूर्वोक्त शब्दों का उच्चारण हो, उसे गमिक श्रत और जिस शास्त्र में पुनः-पुन: एक सरीखे पाठ न पाते हों, उसे अगमिक श्रुत कहते हैं। 13-14. अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य श्रुत-जिन शास्त्रों की रचना तीर्थंकरों के उपदेशानुसार गणधर स्वयं करते हैं, वे अंगप्रविष्ट तथा गणधरों के अतिरिक्त अंगों का प्राधार लेकर स्थविरों द्वारा प्रणीत शास्त्र अंगबाह्य कहलाते हैं / अंगप्रविष्ट श्रुत के प्राचारांग आदि बारह भेद हैं। आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त के भेद से अंगबाह्य श्रुत दो प्रकार का है / गुणों के द्वारा आत्मा को वश में करना आवश्यकीय है, ऐसा वर्णन जिसमें हो, उसे आवश्यक श्रुत कहते हैं। आवश्यक श्रुत के छह भेद हैं-१. सामायिक, 2. चतुर्विशतिस्तव, 3. वंदना, 4. प्रतिक्रमण, 5. कायोत्सर्ग और 6. प्रत्याख्यान तथा आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुत के दो भेद हैं-कालिक और उत्कालिक / जो शास्त्र दिन और रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में पढ़े जाते हैं, वे कालिक और जिनका कालवेला वर्ज कर अध्ययन किया जाता है अर्थात् अस्वाध्याय के समय को छोड़कर शेष रात्रि और दिन में पढ़े जाते हैं, वे उत्कालिक शास्त्र कहलाते हैं। उत्कालिक और कालिक शास्त्र अनेक प्रकार के हैं। ___इन सभी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य शास्त्रों का विशेष परिचय नंदीसूत्र और उसकी चूर्णि एवं वत्ति में दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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