Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 202
________________ 160 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वदासी-पएसी ! से जहाणामए अंकवाणिया इ वा, संखवाणिया इ वा, दंतवाणिया इ वा, सुकं भंसिउंकामा णो सम्म पंथं पुच्छइ, एवामेव पएसी ! तुम्भे विविणयं भंसेउकामो नो सम्म पुच्छसि / से पूर्ण तव पएसो ममं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-जड़डा खलु भो! जड्ड पज्जुवासंति, जाव पवियरित्तए, से पूणं पएसी अट्ठ समत्थे ? हंता! अस्थि / २३६–तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा, जहाँ केशी कुमारश्रमण विराजमान थे, वहाँ आया और केशी कुमारश्रमण से कुछ दूर खड़े होकर बोला-हे भदन्त ! क्या आप अाधोऽवधिज्ञानधारी हैं ? क्या आप अन्नजीवी हैं ? तब केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-हे प्रदेशी ! जैसे कोई अंकवणिक् (अंक रत्न का व्यापारी) अथवा शंखवणिक्, दन्तवणिक, राजकर न देने के विचार से सीधा मार्ग नहीं पूछता, इसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी विनयप्रतिपत्ति नहीं करने की भावना से प्रेरित होकर मुझ से योग्य रीति से नहीं पूछ रहे हो / हे प्रदेशी ! मुझे देखकर क्या तुम्हें यह विचार समुत्पन्न नहीं हुआ था, कि ये जड़ जड़ की पयुपासना करते हैं, यावत् मैं अपनी ही भूमि में स्वेच्छापूर्वक घूम-फिर नहीं सकता हूँ ? प्रदेशी ! मेरा यह कथन सत्य है ? प्रदेशी–हाँ आपका कहना सत्य है अर्थात् मेरे मन में ऐसा विचार प्राया था। २४०-तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वदासी–से केण?णं भंते ! तुज्झ नाणे वा दंसणे वा जेणं तुझे मम एयारूवं प्रज्झस्थियं जाव संकप्पं समुप्पण्णं जाणह पासह ? २४०–तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा-भदन्त ! तुम्हें ऐसा कौनसा ज्ञान और दर्शन है कि जिसके द्वारा आपने मेरे इस प्रकार के आन्तरिक यावत् मनोगत संकल्प को जाना और देखा? २४१--तए णं से केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं क्यासी-एवं खलु पएसी ! अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णते, तं जहा–आभिणिबोहियणाणे सुयनाणे प्रोहिणाणे मणपज्जबणाणे केवलणाणे। से कि तं प्राभिणिबोहियनाणे ? प्राभिणिबोहियनाणे चउबिहे पण्णते, तं जहा-उग्गयो ईहा प्रवाए धारणा / से कि तं उम्गहे ? उम्गहे दुविहे पण्णत्ते, जहा नंदीए जाव से तं धारणा, से तं प्राभिणिबोहियणाणे / से कि तं सुयनाणे? सुयनाणे दुविहे पण्णते, तं जहा–अंगपविट्ठच, अंगबाहिरं च, सव भाणियव जाव दिदिवाओ। प्रोहिणाणं भवपच्चइयं, खओवसमियं जहा गंदीए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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