________________ प्रदेशी राजा को लाने हेतु चित्त की युक्ति] [157 जएणं विजएणं वद्धावेइ, एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं कंबोएहिं चत्तारि प्रासा उवणयं यणीया. ते यम देवाणपियाणं अण्णया चेव विणइया / तं एहणं सामी! ते प्रासे चिटपासह। तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासो-गच्छाहि णं तुम चित्ता! तेहि चेव चहि प्रासेहि प्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेहि जाव पच्चप्पिणाहि / तए णं से चित्ते सारही पएसिणा रना एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ-जाव-हियए उवटुवेइ, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणइ। तए णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स अंतिए एयमटु सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ट जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे सानो गिहायो निग्गच्छ / जेणामेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंटे पासरहं दुरूहइ, सेयवियाए नगरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छइ / तए णं से चित्ते सारही तं रहं गाइं जोयणाई उभामेइ / तए णं से पएसी राया उण्हेण य तण्डाए य रहवाएणं परिकिलते समाणे चित्तं साहि एवं क्यासी-चित्ता! परिकिलते मे सरीरे, परावतेहि रहं। तए णं से चित्ते सारही रहं परावत्तेइ / जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, पएसि रायं एवं वयासी-एस ण सामी ! मियबणे उज्जाणे, एत्थ णं प्रासाणं समं किलामं सम्म प्रवणेमो। तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वदासी-एवं होउ चित्ता! २३६-तत्पश्चात् कल (आगामी दिन) रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित हो जाने से जब कोमल उत्पल कमल विकसित हो चुके और धूप भी सुनहरी हो गई तब नियम एवं प्रावश्यक कार्यों जाज्वल्यमान तेज सहित सहस्ररश्मि दिनकर के चमकने के बाद चित्त सारथी अपने घर से निकला। जहाँ प्रदेशी राजा का भवन था, उसमें भी जहाँ प्रदेशी राजा था, वहाँ आया। प्राकर दोनों हाथ जोड़ यावत् अंजलि करके जय-विजय शब्दों से प्रदेशी राजा का अभिनन्दन किया और इस प्रकार बोला-कंबोज देशवासियों ने देवानुप्रिय के लिए जो चार घोड़े उपहार-स्वरूप भेजे थे, उन्हें मैंने आप देवानुप्रिय के योग्य प्रशिक्षित कर दिया है। अतएव स्वामिन् ! आज प्राप पधारिए और उन घोड़ों की गति अादि चेष्टाओं का निरीक्षण कीजिये। तब प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! तुम जाओ और उन्हीं चार घोड़ों को जोतकर अश्वरथ को यहाँ लामो यावत् मेरी इस आज्ञा को वापस मुझे लौटायो अर्थात् रथ आने की मुझे सूचना दो। चित्त सारथी प्रदेशी राजा के कथन को सुनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुा / यावत् विकसितहृदय होते हुए उसने अश्वरथ उपस्थित किया और रथ ले आने की सूचना राजा को दी। तत्पश्चात् वह प्रदेशी राजा चित्त सारथी की बात सुनकर और हृदय में धारण कर हृष्टतुष्ट हुना यावत् मूल्यवान् अल्प आभूषणों से शरीर को अलंकृत करके अपने भवन से निकला और जहाँ चार घंटों वाला अश्वरथ था, वहाँ पाया। पाकर उस चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ होकर सेयविया नगरी के बीचोंबीच से निकला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org