________________ केशी कुमारश्रमण का उत्तर ] [ 155 हे चित्त ! जीव निश्चय ही इन चार कारणों से केवलि-भाषित धर्म को सुनने का लाभ प्राप्त नहीं कर पाता है / वे चार कारण इस प्रकार हैं 1. पाराम (बाग) में अथवा उद्यान में स्थित श्रमण या माहन के अभिमुख जो नहीं जाता है, मधुर वचनों से जो उनकी स्तुति नहीं करता है, मस्तक नमाकर उनको नमस्कार नहीं करता है, अभ्युत्थानादि द्वारा (आसन से उठकर) उनका सत्कार नहीं करता है, उनका सम्मान नहीं करता है तथा कल्याण स्वरूप, मंगल स्वरूप, देव स्वरूप, विशिष्ट ज्ञान स्वरूप मानकर जो उनकी पर्युपासना नहीं करता है; जो अर्थ-जीवाजीवादि पदार्थों को, हेतुनों (मुक्ति के उपायों) को जानने की इच्छा से प्रश्नों को, कारणों (संसारबन्ध के कारणों) को, व्याख्याओं (तत्त्वों का पूर्ण ज्ञान करने के लिये उनके स्वरूप) को नहीं पूछता है, तो हे चित्त ! वह जीव केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाता है। 2. उपाश्रय में स्थित श्रमण आदि का वन्दन, नमन, सत्कार-संमान आदि करने के निमित्त जो उनके सन्मुख नहीं जाता यावत् उनसे व्याकरण (तत्त्व का विवेचन) नहीं पूछता, तो इस कारण भी हे चित्त ! वह जीव केवलि-भाषित धर्म को सुन नहीं पाता है। 3. गोचरी--भिक्षा के लिये गांव में गये हुए श्रमण अथवा माहन का सत्कार आदि करने के निमित्त जो उनके समक्ष नहीं जाता यावत् उनकी पर्युपासना नहीं करता तथा विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार से उन्हें प्रतिलाभित नहीं करता, एवं शास्त्र के अर्थ यावत् व्याख्या को उनसे नहीं पूछना, तो ऐसा जीव भी हे चित्त ! केवली भगवान् द्वारा निरूपित धर्म को सुन नहीं पाता है / 4. कहीं श्रमण या माहन का सुयोग मिल जाने पर भी वहाँ अपने आप को छिपाने के लिये अथवा पहचाना न जाऊँ, इस विचार से हाथ से, वस्त्र से, छत्ते से स्वयं को आवत कर लेता है, ढाँक लेता है एवं उनसे अर्थ आदि नहीं पूछता है, तो इस कारण से भी हे चित्त ! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म श्रवण करने का अवसर प्राप्त नहीं कर सकता है / उक्त चार कारणों से हे चित्त ! जीव केवलिभाषित धर्म श्रवण करने का लाभ नहीं ले पाता है, किन्तु हे चित्त ! इन चार कारणों से जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है / वे चार कारण इस प्रकार हैं 1. आराम में अथवा उद्यान में पधारे हुए श्रमण या माहन को जो वन्दन करता है, नमस्कार करता है यावत (सत्कार संमान करता है और कल्याणरूप मंगलरूप देवरूप एवं ज्ञानरूप मानकर) उनकी पर्युपासना करता है, अर्थों को यावत् (हेतुनों, प्रश्नों, कारणों, व्याख्याओं को) पूछता है तो हे चित्त ! वह जीव केवलिप्ररूपित धर्म को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है। 2. इसी प्रकार जो जीव उपाश्रय में रहे हुए श्रमण या माहन को वन्दन-नमस्कार करता है यावत् उनको पर्युपासना करता हुआ अर्थों आदि को पूछता है तो वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुन सकता है। 3. इसी प्रकार जो जीव गोचरी-भिक्षाचर्या के लिये गए हुए श्रमण या माहन को वन्दननमस्कार करता है यावत् उनकी पर्युपासना करता है तथा विपुल (अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org