________________ केशी कुमारश्रमण का सेयविया में पदार्पण 1 [ 153 हियए व्हाए कयबलिकम्मे जाव सरीरे जेणेव चाउग्घंटे जाव दुरूहिता सकोरंट० महया भडचडगरेणं तं चेव जाव पज्जुवासइ धम्मकहाए जाव / २३२---तब वह चित्त सारथी उन उद्यानपालकों से इस संवाद को सुनकर एवं हृदय में धारण कर हर्षित, संतुष्ट हुआ। चित्त में आनंदित हुआ, मन में प्रीति हुई। परम सौमनस्य को प्राप्त हुप्रा / हर्षातिरेक से विकसितहृदय होता हुआ अपने पासन से उठा, पादपीठ से नीचे उतरा, पादुकाएं उतारी, एकशाटिक उत्तरासंग किया और मुकुलित हस्तानपूर्वक अंजलि करके जिस प्रोर केशी कुमारश्रमण विराजमान थे, उस ओर सात-आठ डग चला और फिर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा __ अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो यावत् सिद्धगति को प्राप्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो / मेरे धर्माचार्य, मेरे धर्मोपदेशक केशी कुमारश्रमण को नमस्कार हो। उनकी मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ विराजमान वे भगवान् यहाँ विद्यमान मुझे देखें, इस प्रकार कहकर वंदन-नमस्कार किया। इसके पश्चात् उन उद्यानपालकों का विपुल वस्त्र, गंध, माला, अलंकारों से सत्कार-सन्मान किया तथा जीविकायोग्य विपुल प्रीतिदान (पारितोषिक) देकर उन्हें विदा किया। तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनको आज्ञा दी-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही तुम चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर उपस्थित करो यावत् हमें इसकी सूचना दो। तब वे कौटुम्बिक पुरुष यावत् शीघ्र ही छत्र एवं ध्वजा-पताकाओं से शोभित रथ को उपस्थित कर आज्ञा वापस लौटाते हैं-रथ लाने को सूचना देते हैं। ___ कौटुम्बिक पुरुषों से रथ लाने की बात सुनकर एवं हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया यावत् प्राभूषणों से शरीर को अलंकृत किया / जहाँ चार घण्टों वाला रथ था, वहाँ पाया और उस पर आरूढ होकर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर विशाल सुभटों के समुदाय सहित रवाना हुया / वहाँ पहुंच कर पर्युपासना करने लगा। केशी कुमारश्रमण ने धर्मोपदेश दिया। इत्यादि कथन पहले के समान यहाँ समझ लेना चाहिये। २३३–तए णं से चित्ते सारही केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हडतुडे तहेव एवं वयासो—एवं खलु भंते ! अम्ह पएसी राया अधम्मिए जाव' सयस्स वि णं जणवयस्स नो सम्म करभरवित्ति पवत्तेइ, तं जइ णं देवाणुप्पिया! पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणतरं खलु होज्जा पएसिस्स रण्णो तेसि च बहूणं दुपयचउप्पमियपसुपक्खोसिरोसवाणं, तेसि च बहूणं समणमाहणभिक्खुयाणं, तं जइ णं देवाणुप्पिया! पएसिस्स बहुगुणतरं होज्जा सयस्स वि य णं जणवयस्स। २३३---तत्पश्चात् धर्म श्रवण कर और हृदय में धारण कर हर्षित, सन्तुष्ट, चित्त में आनंदित, अनुरागी, परम सौम्यभाव युक्त एवं हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया __हे भदन्त ! हमारा प्रदेशी राजा अधार्मिक है, यावत् राजकर लेकर भी समोचीन रूप से 1. देखें सूत्र संख्या 226 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org