________________ 150 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र के लिये उपनिमंत्रित करना-प्रार्थना करना और इसके बाद मेरी इस अाज्ञा को शीघ्र ही मुझे वापस लौटाना अर्थात् जब केशी कुमारश्रमण का यहाँ पदार्पण हो जाये तो उनके आगमन की मुझे सूचना देना। चित्त सारथी को इस आज्ञा को सुनकर वे उद्यानपालक हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसितहृदय होते हुए दोनों हाथ जोड़ यावत् इस प्रकार बोले-- हे स्वामिन् ! 'पापकी आज्ञा प्रमाण' और यह कहकर उनकी आज्ञा को विनयपूर्वक स्वीकार किया। २२६-तए णं चित्ते सारही जेणेव सेयविया णगरी तेणेव उवागच्छइ, सेयवियं नर मज्झमज्झेणं अणुपविसइ, जेणेव पएसिस्स रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ. तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहामो पच्चोरूहइ, तं महत्थं जाव मेण्हइ, जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छई, परसि रायं करयल जाब वद्धावेत्ता तं महत्थं जाव (महाघ, महरिहं, रायरिहं पाहुडं) उवणे। तए णं से पएसो राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थं जाव पडिच्छइ चित्तं सारहिं सक्कारेइ सम्माण पडिविसज्जेड। तए णं से चित्ते सारही पएसिणा रण्णा विसज्जिए समाणे हद जाव हियए पएसिस्स रन्नो अंतियाश्रो पडिनिवखमइ, जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंट प्रासरहं दुरूह इ, सेवियं नरि मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाणो पच्चोरुहइ हाए जाव उप्पि पासायवरगए फुट्टमाणेहि मुइंगमस्थरहिं बत्तीस इबद्ध एहि नाडएहि वरतरुणीसंप उत्तेहि उवणच्चिज्जमाणे उवगाइज्जमाणे उवलालिज्जमाणे इ8 सहकरिस जाव विहरइ। २२६-तत्पश्चात् चित्त सारथी सेयविया नगरी में आ पहुँचा / सेयविया नगरी के मध्य भाग में प्रविष्ट हुअा / प्रविष्ट होकर जहाँ प्रदेशी राजा का भवन था, जहाँ भवन की बाह्य उपस्थानशाला पाया / पाकर घोड़ो का रोका, रथ का खड़ा किया, रथ से नीचे उतरा और उस महाथक यावत भेंट को लेकर जहाँ प्रदेशी राजा था, वहाँ पहुँचा। पहुँच कर दोनों हाथ जोड यावत जयविजय शब्दों से वधाकर प्रदेशी राजा के सन्मुख उस महार्थक यावत् (महर्ष, महान पुरुषों के योग्य, राजाओं के अनुरूप भेंट) को उपस्थित किया। इसके बाद प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से वह महार्थक यावत् भेंट स्वीकार को और सत्कार-संमान करके चित्त सारथी को विदा किया। प्रदेशी राजा से विदा लेकर चित्त सारथी हृष्ट यावत् विकसितहृदय हो प्रदेशी राजा के पास से निकला और जहाँ चार घंटों वाला अश्वरथ था, वहाँ आया। उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ तथा सेयविया नगरी के बीचोंबीच से गुजर कर अपने घर आया / घर आकर घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया और रथ से नीचे उतरा। इसके बाद स्नान करके यावत् श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर जोर-जोर से बजाये जा रहे मृदंगों की ध्वनिपूर्वक उत्तम तरुणियों द्वारा किये जा रहे बत्तीस प्रकार के नाटकों आदि के नृत्य, गान और क्रीड़ा (लीला) को सुनता, देखता और हर्षित होता हुआ मनोज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org