Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 191
________________ चित्त की उद्यानपालकों को आज्ञा] {149 करेंगे, नमस्कार करेंगे यावत् आपकी पर्युपासना करेंगे। विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार से प्रतिलाभित करेंगे, तथा प्रातिहारिक (वापस लौटाने योग्य) पीठ, फलक, शैय्या, संस्तारक ग्रहण करने के लिये उपनिमंत्रित करेंगे अर्थात् आपसे प्रार्थना करेंगे। तब केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी से कहा हे चित्त ! ध्यान में रखेंगे अर्थात् तुम्हारा आमंत्रण ध्यान में रहेगा। चित्त की उद्यानपालकों को प्राज्ञा २२८-तए णं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं वंदइ नमसइ, केसिस्स कुमारसमणस्स अंतियानो कोट्टयानो चेइयानो पडिणिक्खमइ, जेणेव सावत्थी णगरी जेणेव रायमग्गमोगाढे प्रावासे तेणेव उवागच्छइ कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं बयासी-- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट प्रासरहं जुत्तामेव उवटुवेह, जहा सेयवियाए नगरोए निग्गच्छइ तहेव जाव' वसमाणे कुणालाजणवयस्स मज्झमझेणं जेणेव केइयअद्ध, जेणेव सेयविया नगरी, जेणेव मियबणे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ / उज्जाणपालए सद्दावेइ एवं बयासी ___ जया णं देवाणुपिया ! पासावच्चिज्जे केसो नाम कुमारसमणे पुवाणुपुष्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागच्छिज्जा तया णं तुम्भे देवाणप्पिया! केसि कुमारसमणं वंदिज्जाह, नमंसिज्जाह, बंदित्ता ममंसित्ता प्रहापडिरूव उग्गहं अणुजाणेज्जाह, पडिहारिएणं पीढ-फलग जाब उवनिमंतिज्जाह, एयमाणत्तियं खिय्यामेव पच्चप्पिणेज्जाह / तए णं ते उज्जाणपालगा चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-तुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी-तहत्ति, प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति / २२८-तत्पश्चात् (केशी कुमारश्रमण से आश्वासन मिलने के पश्चात्) चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण को वंदना की, नमस्कार किया और केशी कुमारश्रमण के पास से एवं कोष्ठक चैत्य से बाहर निकला / निकलकर जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, जहाँ राजमार्ग पर स्थित अपना आवास था, वहाँ आया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर लामो। इसके बाद जिस प्रकार पहले सेयविया नगरी से प्रस्थान किया था उसी प्रकार श्रावस्ती नगरी से निकल कर यावत् बीच-बीच में विश्राम करता हुआ पड़ाव डालता हुआ, कुणाला जनपद के मध्य भाग में से चलता हुआ जहाँ केकय-अर्ध देश था, उसमें जहाँ सेयविया नगरी थी और जहाँ उस नगरी का मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ प्रा पहुँचा। वहाँ आकर उद्यानपालकों (चौकीदारों एवं मालियों) को बुलाकर इस प्रकार कहा--- हे देवानुप्रियो ! जब पावपित्य (भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा में विचरने वाले) केशी नामक कुमारश्रमण श्रमणचर्यानुसार अनुक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए यहाँ पधारें तब देवानुप्रियो ! तुम केशी कुमारश्रमण को वंदना करना, नमस्कार करना / वंदना-नमस्कार करके उन्हें यथाप्रतिरूप-साधुकल्पानुसार वसतिका की आज्ञा देना तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक आदि 1. देखें सूत्र संख्या 211 Jain Education International For Private & Personal use only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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