________________ [राजप्रश्नीयसूत्र ५३-उस दिव्य यान-विमान का रूप-सौन्दर्य क्या तत्काल उदित हेमन्त ऋतु के बाल सूर्य अथवा रात्रि में प्रज्वलित खदिर (खैर की लकड़ी) के अंगारों अथवा पूरी तरह से कुसुमित-फूले हुए जपापुष्पवन अथवा पलाशवन अथवा परिजातवन जैसा लाल था ? ५४---णो इण? सम?, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स एत्तो इद्वतराए चेव जाव' वण्णेणं पण्णत्ते / गंधो य फासो य जहा मणोणं' / ५४–यह अर्थ समर्थ नहीं है / हे आयुष्मन् श्रमणो ! वह यान-विमान तो इन सभी उपमानों से भी अधिक इष्टतर यावत् रक्तवर्ण वाला था। इसी प्रकार उसका गंध और स्पर्श भी पूर्व में किये गये मणियों के वर्णन से भी अधिक इष्टतर यावत् रमणीय था। आभियोगिक देव द्वारा आज्ञा-पूत्ति की सूचना ५५---तए णं से प्राभियोगिए देवे दिव्वं जाणविमाणं विउच्चइ विउव्वित्ता जेणेव सरियाभे देवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं जाव' पच्चप्पिणति / ५५-दिव्य यान-विमान की रचना करने के अनन्तर पाभियोगिक देव सूर्याभदेव के पास पाया / पाकर सूर्याभदेव को दोनों हाथ जोड़ कर यावत् आज्ञा वापस लौटाई अर्थात् यान-विमान बन जाने की सूचना दी। ५६-तए णं से सरियामे देवे आभियोगस्स देवस्स अंतिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियए दिव्वं जिणिदाभिगमणजोग्गं उत्तरवेउवियरूवं विउन्नति, विउवित्ता चहि अगमहिसोहि सपरिवाराहि, दोहि प्रणीएहि, तं जहा-गंधवाणीएण य गट्टाणीएण य सद्धि संपरिवडे, तं दिव्वं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं तिसोपाणपडिरूवएणं दुरूहति दुरूहित्ता जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसणे / ५६-ग्राभियोगिक देव से दिव्य यान विमान के निर्माण होने के समाचार सुनने के पश्चात् उस सूर्याभ देव ने हर्षित, संतुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हो, जिनेन्द्र भगवान् के सम्मुख गमन करने योग्य दिव्य उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा की। विकुर्वणा करके उनके अपने परिवार सहित चार अग्र महिषियों एवं गंधर्व तथा नाट्य इन दो अनीकों को साथ लेकर उस दिव्य यान-विमान की अनप्रदक्षिणा करके पूर्व दिशावर्ती अतीव मनोहर त्रिसोपानों से दिव्य यान-विमान पर प्रारूढ हुआ और सिंहासन के समीप आकर पूर्व की ओर मुख करके उस पर बैठ गया / ५७-तए णं तस्स सरिनाभस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीनो तं दिव्वं जाणविमाणं अणपयाहिणीकरेमाणा उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुल्हति दुरूहिता पत्तेयं पत्तेयं पुटवण्णत्थेहि देखें सूत्र संख्या 31, 33, 35, 37, 39 2. देखें सूत्र संख्या 41, 43 3. देखें सूत्र संख्या 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org