________________ अभिषेक कालीन देवोल्लास ] [ 111 कयचच्चिएहि आविद्धकंठेगुहिं पउमुष्पलपिहाणेहि सुकुमालकोमलकरपरिग्गहिएहि असहस्सेणं सोवन्नियाणं कलसाणं जाव असहस्सेणं भोमिज्जाणं कलसाणं सव्वोदएहिं सबउट्टियाहि सव्वतूपरेहि जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहि य सव्विड्ढोए जाव वाइएणं महया-महया इंदाभिसेएणं अभिसिचंति / १६१-तत्पश्चात-अभिषेक की सामग्री प्रा जाने के बाद चार हजार सामानिक देवों, परिवार सहित चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकाधिपतियों यावत् अन्य दूसरे बहुत से देवों-देवियों ने उन स्वाभाविक एवं विक्रिया शक्ति से निष्पादित-बनाये गये श्रेष्ठ कमलपुष्पों पर संस्थापित, सुगंधित शुद्ध श्रेष्ठ जल से भरे हुए, चन्दन के लेप से चचित, पंचरंगे सूत-कलावे से पाविद्ध बन्धे-लिपटे हए कंठ वाले, पदम (सूर्यविकासी कमलों) एवं उत्पल (चन्द्रविकासी कमलों) के ढक्कनों से ढंके हुए, सुकुमाल कोमल हाथों से लिये गये और सभी पवित्र स्थानों के जल से भरे हए एक हजार आठ स्वर्ण कलशों यावत् एक हजार पाठ मिट्टी के कलशों, सब प्रकार की मृत्तिका एवं ऋतुओं के पुष्पों, सभी काषायिक सुगन्धित द्रव्यों यावत् औषधियों और सिद्धार्थकों-सरसों से महान् ऋद्धि यावत् वाद्यघोषों पूर्वक सूर्याभ देव को अतीव गौरवशाली उच्चकोटि के इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषेककालीन देवोल्लास १९२-तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स महया-महया इंदाभिसेए वट्टमाणे अप्पेगतिया देवा सरियाभं विमाणं नच्चोययं नातिमटियं पविरल-फुसियरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदगं वासं वासंति, अप्पेगतिया देवा हयरयं, नहरयं, भट्टरयं, उवसंतरयं, पसंतरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा सरियाभं विमाणं मंचाइमंचकलियं करेंति, अप्पेगइया देवा सरियाभं विमाणं णाणाविहरागोसियं झयपडागाइपडागमंडियं करेंति, अप्पेगतिया देवा सरियाभं विमाणं लाउल्लोइयमहियं, गोसीससरसरसचंदणददरदिण्णपंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगतिया देवा सरियाभं विमाणं उवत्रियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसमागं करेंति, अप्पेगतिया देवासूरियाभं विमाणं पासत्तोसतविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं पंचवण्णसुरभिमुक्कपुप्फपुजोवयारकलियं करेंति, अप्पेगतिया सूरियाभं विमाणं कालागुरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघतगंधुद्ध्याभिरामं करेंति, अप्पेगइतया देवा सूरियाभं विभाणं सुगंधगंधियं गंधटिभूतं करेंति / अप्पेगतिया देवा हिरण्णवासं वासंति, सुवण्णवासं वासंति, रययवासं वासंति, वइरवासं०५ पृष्फवासं० फलवासं० मल्लवासं० गंधवासं० चण्णवासं० प्राभरणवासं० वासंति / अप्पेगतिया देवा हिरण्णविहिं भाएंति, एवं सुवन्नविहिं भाएंति रयणविहि, पुष्फविहि, फलविहि, मल्लविहिं चुण्णविहिं बथविहिं गंधविहि, तत्थ अप्पेगतिया देवा प्राभरणविहिं भाएंति / अप्पेगतिया चउन्विहं वाइत्तं वाइंति-ततं-विततं-घणं झसिरं, अप्पेगइया देवा चउन्विहं गेयं गायंति तं०-उक्खित्तायं-पायत्तायं-मंदायं-रोइतावसाणं, अप्पेगतिया देवा दुयं नट्टविहिं उवदंसिति, अप्पेगतिया विलंबियणट्टविहिं उवदंसेंति, अप्पेगतिया देवा दुतविलंबियं णट्टविहि उवदंसेंति, एवं अप्पेगतिया अंचियं नट्टविहिं उवदंसेंति, अप्पेगतिया देवा प्रारभर्ट, भसोलं, प्रारमडमसोलं उप्पायनिवाय१. 0 'वासंति' शब्द का सूचक है तथा भाएंति शब्द का भी संकेत किया गया है। संदर्भानुसार उस उस शब्द को ग्रहण करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org