Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 179
________________ श्रावस्ती नगरी में केशी कुमारश्रमण का पदार्पण ] [137 वचस्वी सार्थक वचन बोलने वाले, यशस्वी, क्रोध को जीतने वाले, मान को जीतने वाले, माया को जीतने वाले, लोभ को जीतने वाले, जीवित रहने की आकांक्षा एवं मृत्यु के भय से विमुक्त, तपःप्रधान अर्थात् उत्कृष्ट तप करने वाले, गुणप्रधान अर्थात् उत्कृष्ट संयम गुण के धारक, करणप्रधान (पिंडविशुद्धि आदि करणसत्तरी में प्रधान), चरणप्रधान (महाव्रत आदि चरणसत्तरी में प्रधान), निग्रह-प्रधान (मन और इन्द्रियों की अनाचार में प्रवृत्ति को रोकने में सदैव सावधान), तत्त्व का निश्चय करने में प्रधान, प्रार्जवप्रधान (माया का निग्रह करने वाले), मार्दवप्रधान (अभिमानरहित), लाघवप्रधान अर्थात् क्रिया करने के कौशल में दक्ष, क्षमाप्रधान अर्थात् क्रोध का निग्रह करने में प्रधान, गुप्तिप्रधान (मन, वचन, काय के संयमी), मुक्ति (निर्लोभता) में प्रधान, विद्याप्रधान (देवता-अधिष्ठित प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं में प्रधान), मंत्रप्रधान (हरिणेगमैषी श्रादि देवों से अधिष्ठित अथवा साधना से प्राप्त होने वाली विद्याओं में प्रधान), ब्रह्मचर्य अथवा समस्त कुशल अनुष्ठानों में प्रधान, वेदप्रधान अर्थात् लौकिक और लोकोत्तर आगमों में निष्णात, नयप्रधान अर्थात् समस्त वाचनिक अपेक्षाओं के मर्मज्ञ, नियमप्रधान -विचित्र अभिग्रहों को धारण करने में कुशल, सत्यप्रधान, शौचप्रधान (द्रव्य और भाव से ममत्व रहित), ज्ञानप्रधान, दर्शनप्रधान, चारित्रप्रधान, उदार, घोर परीषहों, इन्द्रियों और कषायों आदि अान्तरिक शत्रुओं का निग्रह करने में कठोर, घोरवती-अप्रमत्त भाव से महाव्रतों का पालन करने वाले, घोरतपस्वी-महातपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी-उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, शरीरसंस्कार के त्यागी, विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में ही समाये रखने वाले, चौदह पूर्वो के जाता, मतिज्ञानादि मन:पर्यायज्ञानपर्यन्त चार ज्ञानों के धनी पाश्र्वापत्य (भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्यपरम्परा के) केशी नामक कुमारश्रमण (कुमार अवस्था में दीक्षित साधु) पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त होकर अनुक्रम से चलते हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, जहाँ कोष्ठक चैत्य था, वहाँ पधारे एवं श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में यथोचित अवग्रह को ग्रहण किया अर्थात् स्थान की याचना की और फिर अवग्रह ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन-मूल पाठ में आगत 'करणप्पहाणे' एवं चरगप्पहाणे' पद में करण और चरण शब्द करणसत्तरी और चरणसत्तरी के बोधक हैं / इन दोनों का तात्पर्य है—करण के सत्तर भेद और चरण के सत्तर भेद / प्रयोजन होने पर साधु जिन नियमों का सेवन करते हैं उन्हें करण अथवा करणगुण कहते हैं और जिन नियमों का निरंतर पाचरण किया जाता है, वे चरण अथवा चरणगुण कहलाते हैं। करण के सत्तर भेद इस प्रकार हैं पिंडविसोही समिइ भावण पडिमा य इन्दियनिरोहो। पडिलेहण गुत्तीपो अभिग्गहा चेव करणं तु // –ोधनियुक्ति गा०३ आहार, वस्त्र, पात्र और शय्या की शुद्ध गवेषणा, पाँच समिति, अनित्य आदि बारह भावनाएँ, बारह प्रतिमाएँ, पंच इन्द्रियों का निग्रह, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्ति एवं चार प्रकार के अभिग्रह (ये करण गुण के सत्तर भेद हैं)। चरण के सत्तर भेद इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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