________________ 144 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र विवेचन-श्रावक धर्म पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतरूप है। ये दोनों मिलकर श्रावक के बारह व्रत कहलाते हैं / इनमें अणुव्रत श्रावक के मूलवत हैं और शिक्षाव्रत उनके पोषण, संवर्धन एवं रक्षण में सहायक वारूप व्रत हैं। अणुव्रतों के बिना जैसे इन शिक्षाव्रतों का महत्त्व नहीं है, उसी प्रकार इनके बिना अणुव्रतों का यथारूप में अभ्यास, पालन नहीं किया जा सकता है। शिक्षाक्तों के अभ्यास से अणुव्रतों में उत्तरोत्तर स्थिरता प्राती जाती है / पाँच अणुव्रत इस प्रकार हैं--अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत,अचौर्याणव्रत, स्वदार-संतोष व्रत, परिग्रहपरिमाणवत / 1. प्राणातिपात (शरीर, इन्द्रिय, आदि द्रव्यप्राणों और चैत्यन्यरूप भावप्राणों का घात करना) से विरत-निवृत्त होना / इस व्रत में निरपराधी त्रसजीवों की संकल्पपूर्वक विराधना का त्याग करके निष्प्रयोजन स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों का भी प्राणव्यपरोपण (हनन) नहीं किया जाता है। 2. मृषावाद (असत्य) से निवृत्त होना / 3. अदत्तादान (चोरी) से निवृत्त होना / 3. स्वदारसंतोषअपनी परिणीता पत्नी से अतिरिक्त अन्य स्त्रियों के साथ मैथुनसेवन न करना। 5. परिग्रह का परिमाण करना। सात शिक्षाबतों का दो प्रकारों में विभाजन है-गुणव्रत और शिक्षाव्रत / गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार हैं / गुणव्रत अणुव्रतों के गुणात्मक विकास में सहायक एवं साधक के चारित्रगुणों की वृद्धि करने वाले हैं और शिक्षाव्रत अणुव्रतों के अभ्यास एवं साधना में स्थिरता लाने में उपयोगी हैं / २२२-तए णं से चित्ते सारही समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे, उवलद्ध पुण्ण-पावे; पासव-संवर-निज्जर-किरियाहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसले असहिज्जे देवासुर-णाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खसकिन्नर-किंपुरिस--गरुल-गंधव-महोरगाईहि देवगह निम्गंथाम्रो पावयणायो अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिक्कंखिए, णिवितिगिच्छे, लट्ठ गहियट्ठ पुच्छिय? अहिगय? विणिच्छियट्ठ, अद्धिमिजपेम्माणुरागरते-'प्रयमाउसो! निग्गंथे पावयणे 8 अयं परमट्ठ सेसे अण?', ऊसियलिहे अवंगुयदुवारे चियत्तंतेउरघरपवेसे चाउद्दसटुमुद्दिष्टपुष्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे, समणिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारेणं-वत्थ-पडिग्गहकंबल-पायपुछणेणं प्रोसह-भेसज्जेणं पडिलाभेमाणे, अहापरिग्गहेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे, जाई तत्थ रायकज्जाणि य जाव' रायववहाराणि य ताइं जियसत्तुणा रण्णा सद्धि सयमेव पच्चुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे विहरइ। 222 --तब वह चित्त सारथी श्रमणोपासक हो गया। उसने जीव-अजीव पदार्थों का स्वरूप समझ लिया था, पुण्य-पाप के भेद को जान लिया था, वह अाश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण (क्रिया का प्राधार, जिसके आधार से क्रिया की जाये), बंध, मोक्ष के स्वरूप को जानने में कुशल हो गया था, दूसरे की सहायता का अनिच्छुक (आत्मनिर्भर) था अर्थात् कुतीथिकों के कुतर्कों के खंडन में पर की सहायता की अपेक्षा वाला नहीं रहा / देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग प्रादि देवताओं द्वारा निर्गन्थ प्रवचन से अनतिक्रमणीय था, अर्थात् विचलित किये जा सकने योग्य नहीं था। निग्रन्थ-प्रवचन में निःशंक-शंकारहित था, आत्मोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा रहित था / अथवा अन्य मतों की आकांक्षा उसके चित्त में नहीं थी, विचिकित्सा--फल 1. देखें सूत्र संख्या 211 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org