________________ 142 ] | राजप्रश्नीयसूत्र इसके बाद वह अतिविशाल परिषद् (जनसमूह) केशी कुमारश्रमण से धर्मदेशना सुनकर एवं हृदय में धारण कर-मनन कर जिस दिशा से आई थी, उसी ओर लौट गई, अर्थात् वह आगत जनसमूह अपने-अपने घरों को वापस लौट गया। विवेचन-कुमारश्रमण केशी पार्श्वनाथ के अनुयायी थे और भगवान् पार्श्व ने चार यामों की प्ररूपणा को है / अतः इन्होंने चार यामों (महाव्रतों) का उपदेश दिया। लेकिन भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित पंच महाव्रतों से संख्या-भेद के सिवाय इन चार महावतों के प्राशय में अन्य कोई अन्तर नहीं है। स्थानांगसत्र टीका में 'बहिद्धा' का अर्थ मैथन और 'पादान' का अर्थ परिग्रह बताया है। अथवा स्त्री-परिग्रह एवं अन्य किसी भी प्रकार का परिग्रह बहिद्धादान में गभित है। २२०–तए णं से चित्ते सारही केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ-जावहियए उढाए उ8 इ, उट्ठत्ता केसि कुमारसमणं तिक्खुत्तो प्रायाहिणंपयाहिणं करेइ, बंदइ नमसइ, नमंसित्ता एवं वयासी--- सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं / पत्तियामि णं भंते ! निम्गंथं पावयणं / रोएमि गं भंते ! निग्गंथं पावयणं / भंते! निम्गंथं पावयणं / एवमेयं निग्गंथं पावयणं / तहमेयं भंते ! 0' प्रवितहमेयं भंते ! 0 असंदिद्धमेयं०, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! जंणं तुम्भे वदह त्ति कटु वंदइ नमसइ, नमंसित्ता एवं क्यासी-जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा जाव इन्भा इन्भपुत्ता चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं एवं धणं-धन्न-बल-वाहणं-कोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं, चिच्चा विउलं धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल संतसारसावएज्जं विच्छडित्ता / दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता मुडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पब्वयंति, णो खलु अहं ता संचाएमि चिच्चा हिरण्णं तं चेव जाव पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! सा पडिबंध करेहि / २२०-तदनन्तर वह चित्त सारथी केशी कुमारश्रमण से धर्म श्रवण कर एवं उसे हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट होता हुआ यावत् (चित्त में आनन्द का अनुभव करता हुआ, प्रीति-अनुराग युक्त होता हुआ, सौम्यभावों वाला होता हुआ और हर्षातिरेक से विकसित) हृदय होता हुअा अपने आसन से उठा। उठकर केशी कुमारश्रमण की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा को, वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है / भगवन् ! इस पर प्रतीति (विश्वास) करता हूँ / भदन्त ! मुझे निर्गन्थ प्रवचन रुचता है अर्थात् तदनुरूप आचरण करने का आकांक्षी हूँ / हे भगवन् ! मैं निम्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूँ ! भगवन् ! 1. यहां 0 'निगन्थं पावयणं' का वोधक संकेत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org