________________ केशी श्रमण की देशना / [ 143 यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा ही है / भगवत् ! यह तथ्य-यथार्थ है। भगवन् ! यह अवितथ-सत्य है / अंसिदिग्ध है-शंका-संदेह से रहित है। मुझे इच्छित है अर्थात् मैंने इसकी इच्छा की है / मुझे इच्छित, प्रतीच्छित है अर्थात् मैं इसकी पुन: पुन: इच्छा करता हूँ। भगवन् ! यह वैसा ही है जैसा आप निरूपण-कथन करते हैं / ऐसा कहकर वन्दन-नमस्कार किया और नमस्कार करके पुनः बोला देवानुप्रिय ! जिस तरह से आपके पास अनेक उग्रवंशीय, भोगवंशीय यावत् इभ्य एवं इभ्यपुत्र आदि हिरण्य-चांदी का त्याग कर, स्वर्ण को छोड़कर तथा धन, धान्य, बल, वाहन, कोश, कोठार, पुर-नगर, अन्तःपुर का त्याग कर और विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल (मूगा) आदि सारभूत द्रव्यों का ममत्व छोड़कर, उन सबको दीन-दरिद्रों में वितरित कर, पुत्रादि में बँटवारा कर, मुडित होकर, गृहस्थ जीवन का परित्याग कर अनगारधर्म में प्रवजित हुए हैं, उस प्रकार चाँदी का त्याग कर थावत् प्रवजित होने में तो मैं समर्थ नहीं हूँ। मैं पाप देवानुप्रिय के पास पंच अणुव्रत, सात शिक्षाबत मूलक बारह प्रकार का गृहीधर्म (श्रावकधर्म) अंगीकार करना चाहता हूँ। चित्त सारथी की भावना को जानकर केशी कुमारश्रमण ने कहा-देवानुप्रिय ! जिससे तुम्हें सुख हो, वैसा ही करो, किन्तु प्रतिबंध--विलंब मत करो। विवेचन-चित्त सारथी संसारभीरु था और प्रदेशी राजा के पाप कार्यों से खेदखिन्न रहता था। लेकिन अपनी मानसिक, पारिवारिक और प्रजाजनों की स्थिति को देखकर तत्काल उसे यह संभव प्रतीत नहीं हुआ कि अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार कर लू / इसीलिए उसने निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति भावपूर्ण शब्दों में अपनी प्रान्तरिक श्रद्धा का निवेदन किया / केशी कुमारश्रमण के समक्ष जब चित्त सारथी ने अपनी आन्तरिक भावना को व्यक्त करते हुए अपने विचारों को प्रकट किया तो केशी कुमारश्रमण ने अपने मध्यस्थभाव के अनुसार कहाअहासुहं देवाणुप्पिया ! और फिर यह जानकर कि यह भव्य आत्मा संसारसागर से पार होने की अभिलाषी है, इसे पथप्रदर्शन एवं तदनुकूल निमित्तों का बोध कराने की आवश्यकता है। बिना पथ प्रदर्शन के भटक सकती है तो हल्का का संकेत भी उन्होंने कर दिया कि 'मा पडिबंध करेहि।' सारांश यह हुअा कि इच्छानुसार चित्त सारथी श्रावकधर्म ग्रहण करना चाहे तो कर ले। क्योंकि जीवनशुद्धि के लिये कम-से-कम इतना त्याग तो प्रत्येक मनुष्य को करना ही चाहिए / २२१–तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स अंतिए पंचाणुव्वतियं जाव गिहिधम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति / तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं वंदइ नमसइ, तमंसिता जेणेव चाउग्धंटे प्रासरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। चाउग्धंट आसरहं दुरूहइ, जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। २२१-तब चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण के पास पांच अणुव्रत यावत् (सात शिक्षाव्रतरूप) श्रावक धर्म को अंगीकार किया। तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण की वंदना की, नमस्कार किया / नमस्कार करके जहाँ चार घंटों वाला प्रश्वरथ था, उस ओर चलने को तत्पर-उन्मुख हुप्रा / वहाँ जाकर चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ, फिर जिस ओर से आया था, वापस उसी ओर लौट गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org