________________ 136 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र २१२-तए णं से चित्ते सारही विसज्जिते समाणे जियसत्तुस्स रनो अंतियानो पडिनिक्खमइ, जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्धंट प्रासरहं दुरूहइ, सात्थि नरि मज्झमझेणं जेणेव रायमग्गमोगाढे प्रावासे तेणेव उवागच्छइ, तुरए निगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहापो पच्चोरहइ, जहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सद्धष्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिते अप्पमहग्घाभरणालं कियसरीरे जिमियभुत्ततरागए वियणं समाणे पुव्वावरणहकालसमयंसि गंधवेहि य गाडगेहि य उवनच्चिज्जमाणे उवनश्चिज्जमाणे, उवगाइज्जमाणे उवगाइज्जमाणे, उबलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे इ8 सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चणुभवमाणे विहरइ। २१२-तत्पश्चात् चित्त सारथी विदाई लेकर जितशत्र राजा के पास से निकला और जहाँ वाह्य उपस्थानशाला थी, चार घंटों वाला अश्वरथ खड़ा किया था, वहाँ पाया। आकर उस चातुर्घट अश्वरथ पर सवार हुना। फिर श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच से होता हुआ राजमार्ग पर अपने ठहरने के लिये निश्चित किये गये आवास स्थान पर आया। वहाँ घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया और नीचे उतरा / इसके पश्चात् उसने स्नान किया, बलिकर्म किया और कौतुक, मंगल प्रायश्चित्त करके शुद्ध और उचित--योग्य मांगलिक वस्त्र पहने एवं अल्प किन्तु बहुमूल्य प्राभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। भोजन आदि करके तीसरे प्रहर गंधणे, नर्तकों और नाट्यकारों के संगीत, नृत्य और नाट्याभिनयों को सुनते-देखते हुए तथा इष्ट-अभिलषित शब्द, स्पर्श, रस, रूप एवं गंधमूलक पांच प्रकार के मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोगते हुए विचरने लगा। श्रावस्ती नगरी में केशी कुमारश्रमण का पदार्पण 213 तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जेि केसी नाम कुमारसमणे जातिसंपण्णे कुलसंपण्णे बलसंपण्णे रूवसंपण्णे विणयसंपण्णे नाणसंपण्णे दंसणसंपन्ने चरिससंपण्णे लज्जासंपण्णे लाघवसंपण्णे लज्जालाघवसंपण्णे प्रोयंसी तेयंसी बच्चंसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोहे जियणिद्दे जितिदिए जियपरीसहे जीवियास-मरणभयविप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे करणप्पहाणे चरणप्पहाणे निग्गहप्पहाणे निच्छयप्पहाणे प्रज्जवप्पहाणे महवप्पहाणे लाघवप्पहाणे खंतिप्पहाणे गुत्तिप्पहाणे मुत्तिप्पहाणे विज्जपहाणे मंतष्पहाणे बंभप्पहाणे वेयप्पहाणे नयप्पहाणे नियमप्पहाणे सच्चपहाणे सोयप्पहाणे नाणपहाणे सणप्पहाणे चरित्तप्पहाणे अोराले धोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविपुलतेउलेस्से चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगए पंचहि अणगारसहि सद्धि संपरिवडे पुवाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव सावत्थी नयरी, जेणेव कोट्टए चेइए, तेणेव उवागच्छइ, सावत्थी नयरोए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हइ, उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। २१३---उस काल और उस समय में जातिसंपन्न--उत्तम मातृपक्ष वाले, कुल संपन्न- उत्तम पितृपक्ष वाले, आत्मबल से युक्त, अनुत्तर विमानवासी देवों से भी अधिक रूपवान् (शरीर-सौन्दर्यशाली), विनयवान्, सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चरित्र के धारक, लज्जावान्-पाप कार्यों के प्रति भीरु, लाघववान् (द्रव्य से अल्प उपधि वाले और भाव से ऋद्धि, रस और साता रूप तीन गौरवों से रहित), लज्जालाघवसंपन्न, प्रोजस्वी-मानसिक तेज से संपन्न, तेजस्वी-शारीरिक कांति से देदीप्यमान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org