________________ दर्शनार्थ परिषदा का गमन और चित्त की जिज्ञासा ] [139 पर्युपासना-सेवा करने से प्राप्त होने वाले अनुपम फल के लिये तो कहना हो क्या है ! आर्य धर्म के एक सुवचन के सुनने से जब महाफल प्राप्त होता है, तब हे आयुष्मन् ! विपुल अर्थों को ग्रहण करने से प्राप्त होने वाले फल के विषय में तो कहना ही क्या है ? इसलिये हे देवानुप्रियो! हम उनके पास चलें; उनको वंदन-नमस्कार करें, उनका सत्कार करें, भक्तिपूर्वक सम्मान करें एवं कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप उनकी विनयपूर्वक पर्युपासना करें। यह वंदन-नमस्कार करना हमें इस भव तथा परभव में हितकारी है, सुखप्रद है, क्षेम-कुशल एवं परमनिश्रेयस्-कल्याण का साधन रूप होगा तथा इसी प्रकार अनुगामी रूप से जन्म-जन्मान्तर में भी सुख देने का निमित्त बनेगा ऐसा विचार कर परिषदा (जनसमुदाय) निकली और केशी कुमारश्रमण के पास पहुँच कर दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की / प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके न तो अधिक दूर और न अधिक निकट किन्तु उनके सम्मुख यथायोग्य स्थान पर बैठकर शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए सविनय अंजलि करके) पर्युपासना-सेवा करने लगी। २१५---तए णं तस्स सारहिस्स तं महाजणसदं च जणकलकलं च सुणेत्ता य पासेत्ता य इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव (चितिए, पत्थिए मणोगते संकप्पे) समप्पज्जित्था, किणं अज्ज सावत्थीए णयरीए इंदमहे इवा, खंदमहे इवा, रुमहे इवा, मउंदमहे इवा, सिबमहे इवा, वेसमणमहे इवा, नागमहे इ वा, जक्खमहे इ वा, भूयमहे इ वा, थूममहे इ वा, चेइयमहे इ बा, रुक्खमहे इ वा, गिरिमहे इ वा, दरिमहे इ वा, अगडमहे इ वा, नईमहे इ वा, सरमहे इ वा, सागरमहे इ वा, ज णं इमे बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा राइन्ना इक्खागा णाया कोरवा जाव (खत्तिया माहणा भडा जोहा मल्लई मल्लहपुत्ता लेच्छइ, लेच्छइपुत्ता) इब्मा इन्भपुत्ता अण्णे य बहवे राया-ईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबियइन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्यवाहप्पभितियो व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठेमालकडा आविद्धमणिसुवण्णा कप्पियहार-प्रद्धहार-तिसरपालंबपलंबमाण-कडिसुत्तयकयसोहाहरणा चंदणोलित्तगायसरोरा पुरिसवग्गुरापरिखित्ता महया उक्किटुसीहणायबोलकलकलरवेणं एगदिसाए जहा उववाइए जाव अप्पेगतिया हयगया गयगया जाव (रहगया सिबियागया संदमागिया अप्पेगतिया) पायचारविहरेणं महया मया वंदावंदरहि निग्गच्छंति, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कंचुइज्जपुरिसं सदावेइ, सहावित्ता एवं क्यासी कि णं देवाणुप्पिया! अज्ज सावत्थीए नगरीए इंदमहे इ वा जाव सागरमहे इ वा जेणं इमे बहवे उग्गा भोगा० णिग्गच्छति ? २१५-तब लोगों की बातचीत, जनकोलाहल सुनकर तथा जनसमूह को देखकर चित्त सारथी को इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् (चिन्तित, प्रार्थित-इष्ट और मनोगतसंकल्प-विचार) उत्पन्न हुन्ना कि क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमह (इन्द्र-निमित्तक उत्सव-इन्द्रमहोत्सव) है ? अथवा स्कन्द (कार्तिकेय) मह है ? या रुद्रमह, मुकुन्दमह, शिवमह, वैश्रमण (कुबेर) मह, नागमह (नाग सम्बन्धी उत्सव), यक्षमह, भूतमह, स्तुपमह, चैत्यमह, वृक्षमह, गिरिमह, दरि(गुफा)मह, कपमह, नदीमह, सर(तालाब)मह, अथवा सागरमह है ? कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय, उग्रवंशीयकुमार, भोगवंशीय, राजन्यवंशीय, इक्ष्वाकुवंशीय, ज्ञातवंशीय, कौरववंशीय यावत् (क्षत्रिय-सामान्य राज कुल के सम्बन्धी, माहण-ब्राह्मण, सुभट, योधा, मल्लक्षत्रिय (मल्लिक गणराज्य से संबंधित), मल्लपुत्र, लिच्छवी क्षत्रिय लिच्छिवी पुत्र), इब्भ, इब्भपुत्र तथा दूसरे भी अनेक राजा (मांडलिक राजा) ईश्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org