________________ 134 ] [राजप्रश्नीयसूत्र तए णं से चित्ते सारही कोडुबियपुरिसाण अंतिए एयम जाव हियए हाए, कथबलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्ते, सन्नद्धबद्धवम्मियकवए, उप्पीलियसरासणपट्टिए, पिणद्धगेविज्जविमलवरचिंधपट्ट, गहियाउहपहरणे तं महत्थं जाव पाहुडं गेहइ, जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ चाउग्घंटे प्रासरहं दुरुहेति / बहहिं पुरिसेहि सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहि सद्धि संपरिवडे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरेज्जमाणेणं महया भडचडगररहपहकरविंदपरिक्खित्ते सानो गिहायो णिग्गच्छइ सेवियं नगरि मभंमझेणं णिग्गच्छइ, सुहेहि वासेहिं पायरासेहि नाइविकिट्ठहि अंतरा वासेहि वसमाणे-वसमाणे केइयप्रद्धस्स जणवयस्स मज्झमझणं जेणेव कुणालाजणवए जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ, सावत्थीए नयरोए मझमझेणं अणुपविसइ / जेणेव जियसत्तुस्स रण्णो गिहे, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तुरए निगिण्हह, रहं ठवेति, रहामो पच्चोरुहइ / तं महत्थं जाव पाहुडं गिण्हइ जेणेव अभितरिया उवट्ठाणसाला जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उबागच्छइ, जियसत्तुं रायं करयलपरिग्गहियं जाव' कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेइ। तए णं से जियसत्तू राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थं जाव पाहुडं पडिच्छइ, चित्तं सारहि सक्कारेइ सम्माणेइ पडिविसज्जेइ रायमगमोगाढं च से प्रावासं दलयइ / २११-तत्पश्चात् किसी एक समय प्रदेशी राजा ने महार्थ ( विशिष्ट प्रयोजनयुक्त ) बहमूल्य, महान् पुरुषों के योग्य, विपुल, राजाओं को देने योग्य प्राभूत (उपहार) सजाया-तैयार किया। सजाकर चित्त सारथी को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा--- हे चित्त ! तुम श्रावस्ती नगरी जानो और वहाँ जितशत्रु राजा को यह महार्थ यावत् (महान पुरुषों के अनुरूप और राजा के योग्य मूल्यवान्) भेंट दे आयो तथा जितशत्रु राजा के साथ रहकर स्वयं वहाँ की शासन-व्यवस्था, राजा की दैनिकचर्या, राजनीति और राजव्यवहार को देखो, सुनो और अनुभव करो-ऐसा कहकर विदा किया। तब बह चित्त सारथी प्रदेशी राजा की इस प्राज्ञा को सुनकर हर्षित हा यावत् (संतुष्ट हुया, चित्त में आनन्दित, मन में अनुरागी हुआ, परमसौमनस्य भाव को प्राप्त हुया एवं हर्षातिरेक से विकसित-हृदय होकर उसने दोनों हाथ जोड़ शिर पर प्रावर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके-- 'राजन् ! ऐसा ही होगा' कहकर विनयपूर्वक आज्ञा को स्वीकार किया।) आज्ञा स्वीकार करके उस महार्थक यावत् उपहार को लिया और प्रदेशी राजा के पास से निकल कर बाहर आया। बाहर आकर सेयविया नगरी के बीचों-बीच से होता हुअा जहाँ अपना घर था, वहाँ आया / आकर उस महार्थक उपहार को एक तरफ रख दिया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा देवानुप्रियो ! शीघ्र ही छत्र सहित यावत् चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर तैयार कर लामो यावत् इस प्राज्ञा को वापस लौटायो। 1. देखें सूत्र संख्या 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org